बेहिसी कर्ब के सहराओं में जलती ही नहीं

बेहिसी कर्ब के सहराओं में जलती ही नहीं
आरज़ू अब तो किसी तौर मचलती ही नहीं

अब तो जीने की कोई राह निकलती ही नहीं
अब तबीयत ये किसी तौर बहलती ही नहीं

सफ़र इक दायरे में करते हैं शायद हम लोग
मुद्दतें गुज़रीं प ये राह बदलती ही नहीं

अपनी तक़दीर की ख़ूबी कि करूँ लाख जतन
कोई तदबीर मेरे ज़हन की चलती ही नहीं

रायगाँ है ये मेरा संग तराशी का हुनर
जब कि ये ज़ीस्त किसी अक्स में ढलती ही नहीं

रक़्स करती है हवस आज बरहना हर सू
हम से अख़लाक़ की मीरास सँभलती ही नहीं

सिमटा जाता है बशर अपनी ख़ुदी में मुमताज़
रिश्तों-नातों पे जमी बर्फ़ पिघलती ही नहीं


बेहिसी भावनाशून्यता, कर्ब दर्द, रायगाँ बेकार, ज़ीस्त ज़िन्दगी, रक़्स नृत्य, बरहना नग्न, हर सू हर तरफ़, अख़लाक़ सभ्यता, मीरास विरासत, बशर इंसान 

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