राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र

राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र
और ये ज़ीस्त का तवील सफ़र

बारहा टूट कर बिखरती है
ज़िन्दगी ऐसे भी जाती है सँवर

दर ब दर क्यूँ हयात फिरती है
कुछ पता है हमें न कोई ख़बर

आबले भर चले हैं अब शायद
दिल-ए-आवारा चला आज किधर

कैसा आसेब लग गया इस को
कितना मसहूर है ये दिल का खंडर

और जाएगा ये ख़याल कहाँ
एक तू, एक तेरी राहगुज़र

चुभते रहते हैं मेरे तलवों में
दूर तक बिखरे हुए लाल-ओ-गोहर

आँख के सामने है अब मंज़िल
अब तो मुमताज़ है तमाम सफ़र  


ताहद्द-ए-नज़र नज़र की सीमा तक, ज़ीस्त जीवन, तवील लंबा, बारहा बार बार, हयात जीवन, आबले छाले, आसेब भूतबाधा, मसहूर जादू, लाल-ओ-गोहर लाल और मोती 

Comments

Popular posts from this blog

ग़ज़ल - इस दर्द की शिद्दत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते