एक सुनहरी दुनिया देखी ख़्वाबों की इल्हामी में
एक सुनहरी दुनिया देखी ख़्वाबों की इल्हामी में आँख खुली तो सामने सच था , रोते थे नाकामी में आज मोहब्बत बिकती है इस दुनिया के बाज़ारों में चलो लगाएँ बोली हम भी प्यार की इस नीलामी में इश्क़ में लाखों ग़म हैं माना , ज़िल्लत है , रुसवाई है सारे आलम की राहत है इस मीठी बदनामी में सारी उम्र की क़ीमत दे कर भी ये सौदा सस्ता था हम यूँ ही अनमोल हो गए , बिक तो गए बेदामी में एक तमन्ना के हाथों हम जाने कब से लुटते हैं दो पल की राहत पाने को इस दौर-ए-हंगामी में जाने बेताबी का कैसा दौर ये हैं “ मुमताज़ ” आया उलझन में दिन बीत रहे हैं , रातें बेआरामी में इल्हामी – आकाशवाणी