कहाँ तक न जाने मैं आ गई गुम रात दिन के शुमार में
कहाँ तक न जाने मैं आ गई गुम रात दिन के शुमार में कहीं क़ाफ़िला भी वो खो गया इन्हीं गर्दिशों के ग़ुबार में न कोई रफ़ीक़ न आशना , न अदू न कोई रक़ीब है मैं हूँ कब से तन्हा खड़ी हुई इस अना के तंग हिसार में है अजीब फ़ितरत-ए-बेकराँ कि सुकूँ का कोई नहीं निशाँ कभी शादमाँ हूँ गिरफ़्त में कभी मुंतशिर हूँ फ़रार में वो शब-ए-सियाह गुज़र गई मेरी ज़िन्दगी तो ठहर गई है अजीब सी कोई बेकली कोई कश्मकश है क़रार में जले पर भी वक़्त की धूप में गिरे हम ज़मीं प हज़ारहा वही हौसले हैं उड़ान में , वही लग़्ज़िशें हैं शआर में जुदा हो गया है वरक़ वरक़ मेरी ज़िन्दगी की किताब का जो ख़ज़ाना दिल में था , खो गया अना परवरी के ख़ुमार में न वो हिस रही न नज़ाकतें न रहीं क़रार की हाजतें न वो दिल में बाक़ी कसक रही न वो दर्द रूह-ए-फ़िगार में हर सिम्त खिल गए गुल ही गुल हद्द-ए-निगाह तलक मगर हैं चमन चमन प उदासियाँ हैं ख़िज़ाँ के रंग बहार में मैं थी गुम सफ़र के जुनून में कि न देखे ख़ार भी राह के दिल-ए- “ नाज़ाँ ” होता रहा लहू किसी आरज़ू के फ़िशार में