दिसंबर के सर्द लम्हे


दिसंबर के हसीं लम्हे
लरज़ते शबनमी लम्हे
वो अक्सर याद आते हैं
वो मंज़र याद आते हैं

सहर के वक़्त का स्कूल
और सर्दी का वो मौसम
वो पानी बर्फ़ सा जिसकी
छुअन से जिस्म जाता जम
उँगलियाँ सुन्न हों तो
पेंसिल पकड़ी नहीं जाए
बजें जब दाँत तो फिर
लुत्फ़ दे अदरक की वो चाए

लड़कपन की वो रुख़सत थी
जवानी की वो आमद थी
हर इक मंज़र सुहाना था
हर इक शय ख़ूबसूरत थी

दिसंबर दिन के हर लम्हे
मचल कर खिलखिलाता था
बदन सूरज की किरनों से
हरारत जब चुराता था
वो किरनें नर्म थीं कितनी
हरारत कितनी नाज़ुक थी
हवा की सर्द बाहें छेड़ती थीं
उन को छू छू कर
तो वो सहमी सी किरनें
अपनी गर्मी खेंच लेती थीं
सिमट जाती थी नाज़ुक सी शरारत
अपने पैकर में
दिसंबर का हज़ीं, कमज़ोर सूरज
झेंप जाता था
तो फिर वह शाम के आँचल में
अपना मुँह छुपा लेता
सियाही और भी
बेबाक हो कर फैलने लगती
वो सर्दी रात की पोशाक हो कर फैलने लगती
फ़िज़ा कोहरे की चादर
ओढ़ कर रूपोश हो जाती
हर इक हलचल
सहर तक के लिए ख़ामोश हो जाती

पहन लेती ख़मोशी
घुँघरू जब झींगुर की तानों के
तो सुर कुछ तेज़ हो जाते थे
सर्दी के तरानों के
तो फिर डरता हुआ सूरज
दबे पैरों उभरता था
हया से लाल किरनें
धीरे-धीरे, हौले-हौले
कोहरे की परतें हटाती थीं
रज़ाई छोडती कब थी हमें अपनी हरारत से
हमें भी कब गवारा था
निकलना ऐसी राहत से
रज़ाई से निकलते ही
ज़मीं पर पाँव धरते ही
हमें सर्दी की बाहें
घेर लेती थीं शरारत से

वो सहमा सहमा सा मंज़र
अभी तक याद है मुझ को
मुलायम, गर्म सा बिस्तर
अभी तक याद है मुझ को
अभी तक सर्दियों की
वो शरारत याद आती है
वो सहमी
नर्म-नाज़ुक सी
हरारत याद आती है
तसव्वुर में वो साए
अब भी अक्सर थरथराते हैं
अभी तक लम्हे वो ख़्वाबों में आ कर मुसकराते हैं
वो झोंके अब भी
किरनों के बदन को चूमते होंगे
हवाओं के क़दम
सर्दी के सुर पर झूमते होंगे

अभी तक
चुभती सर्दी का वो नश्तर याद आता है
रज़ाई की वो गर्मी
और वो बिस्तर याद आता है
एयर कंडीशनर की ठंड में
मैं जब भी सोती हूँ
मुझे बचपन का वो ठंडा दिसंबर याद आता है

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