ग़ज़ल - तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे
तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे इक इनायत से मेरे ख़्वाब बहल सकते थे तुम ने चाहा ही नहीं वर्ना कभी तो जानां मेरे टूटे हुए अरमाँ भी निकल सकते थे तुम को जाना था किसी और ही जानिब , माना दो क़दम फिर भी मेरे साथ तो चल सकते थे काविशों में ही कहीं कोई कमी थी , वर्ना ये इरादे मेरी क़िस्मत भी बदल सकते थे रास आ जाता अगर हम को अना का सौदा ख़्वाब आँखों के हक़ीक़त में भी ढल सकते थे हम को अपनी जो अन...