तरही ग़ज़ल - ये शिद्दत तश्नगी की बढ़ रही है अश्क पीने से
ये शिद्दत तश्नगी की
बढ़ रही है अश्क पीने से
हमें वहशत सी अब होने लगी मर मर के जीने
से
बड़ी तल्ख़ी है लेकिन इस में नश्शा भी निराला है
हमें मत रोक साक़ी ज़िन्दगी के जाम पीने से
हर इक हसरत को तोड़े जा रहे हैं रेज़ा रेज़ा हम
उतर जाए ये बार-ए-आरज़ू शायद कि सीने से
अभी तक ये फ़सादों की गवाही देती रहती है
लहू की बू अभी तक आती रहती है खज़ीने से
बिखर जाएगा सोना इस ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे पर
ये मिटटी जगमगा उठ्ठेगी मेहनत के पसीने से
हमारे दिल के शो'लों से पियाला जल उठा शायद
लपट सी उठ रही है आज ये क्यूँ आबगीने से
ये जब बेदार होते हैं, निगल जाते हैं खुशियों को
ख़लिश के अज़दहे लिपटे हैं माज़ी के दफीने से
मचलती मौजों पे हम तो जुनूं को आज़माएंगे
"जिसे साहिल की हसरत हो, उतर जाए सफ़ीने से"
हमें तो ज़िंदगी ने हर तरह आबाद रक्खा है
तो क्यूँ 'मुमताज़' अब लगने लगा है ख़ौफ जीने से
बड़ी तल्ख़ी है लेकिन इस में नश्शा भी निराला है
हमें मत रोक साक़ी ज़िन्दगी के जाम पीने से
हर इक हसरत को तोड़े जा रहे हैं रेज़ा रेज़ा हम
उतर जाए ये बार-ए-आरज़ू शायद कि सीने से
अभी तक ये फ़सादों की गवाही देती रहती है
लहू की बू अभी तक आती रहती है खज़ीने से
बिखर जाएगा सोना इस ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे पर
ये मिटटी जगमगा उठ्ठेगी मेहनत के पसीने से
हमारे दिल के शो'लों से पियाला जल उठा शायद
लपट सी उठ रही है आज ये क्यूँ आबगीने से
ये जब बेदार होते हैं, निगल जाते हैं खुशियों को
ख़लिश के अज़दहे लिपटे हैं माज़ी के दफीने से
मचलती मौजों पे हम तो जुनूं को आज़माएंगे
"जिसे साहिल की हसरत हो, उतर जाए सफ़ीने से"
हमें तो ज़िंदगी ने हर तरह आबाद रक्खा है
तो क्यूँ 'मुमताज़' अब लगने लगा है ख़ौफ जीने से
आबगीने – काँच
का ग्लास, बेदार – जागना, बार – बोझ
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