हैं कहीं यादों की किरचें और कहीं उल्फ़त का नाज़
हैं
कहीं यादों की किरचें और कहीं उल्फ़त का नाज़
उस
गली में कैसे कैसे बिखरे हैं राज़-ओ-नियाज़
जब
अंधेरे में सितारा जगमगाता है कोई
पूछता
है दिल तड़प कर हर तमन्ना का जवाज़
जंग-ए-हस्ती
में यही तो होना था अंजामकार
आरज़ू
ज़ख़्मी पड़ी है मस्लेहत है सरफ़राज़
मुंतशर
है ज़िन्दगी, हैं पाँव बोझल, सर्द दिल
कैसी
कैसी वक़्त ने क़िस्मत से की है साज़ बाज़
सर
झुकाए हैं न जाने कब से हम दहलीज़ पर
इक
नज़र तो हम पे भी डाले कभी वो बेनियाज़
लाख
कोशिश की समझने की, न लेकिन खुल सका
एक
असरार-ए-मुक़द्दर, एक ये हस्ती का राज़
तर-ब-तर
है ख़ून से “मुमताज़” सारी ज़िन्दगी
काटता
है दिल को पैहम ये तमन्ना का गुदाज़
राज़-ओ-नियाज़
–
आशिक़ व माशूक़ की गुप्त बातें, जवाज़ – औचित्य, जंग-ए-हस्ती - व्यक्तित्व का युद्ध, अंजामकार – आखिरकार, मस्लेहत – दुनियादारी, सरफ़राज़ – विजयी, मुंतशर – बिखरा हुआ, साज़ बाज़ – साठ गाँठ, बेनियाज़ – अल्लाह, असरार – रहस्य, पैहम – लगातार, गुदाज़ – नर्मी
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