हो रहा है इक तमाशा, अदलिया हरकत में है
हो रहा है इक तमाशा, अदलिया हरकत में है
अहल ए ज़र की है ख़ुदाई, मुफ़्लिसी आफ़त में
है
खेल तख़्त ओ ताज का, इंसां की लाशों की बिसात
देख कर ये क़त्ल ओ ग़ारत मौत भी दहशत में है
क्या इनायत, क्या मुरव्वत, रहम क्या, कैसा ख़ुलूस
किस को देखे कौन, हर कोई यहाँ उजलत में है
बढ़ती ही जाती है पैहम सल्तनत शैतान की
मुंह छुपाए आजकल इंसानियत खिल्वत में है
खाएं क्या रोटी से? इस सूखे सड़े ईमान को
ऐश ओ इशरत तो मियाँ अब आजकल रिश्वत में है
हम तरक्क़ी पर हैं, वो मानेंगे जो मौजूद है
ज़ीनत ए दुनिया है ज़ाहिर, हश्र तो ज़ुल्मत
में है
या इलाही, है रवां किस सिम्त ये अंधा समाज
फिर से इक तौक़ ए ग़ुलामी मुल्क की क़िस्मत में है
ज़ीस्त आसाँ हो तो जीने का मज़ा क्या ख़ाक है?
मुश्किलों से खेलना "मुमताज़" की आदत में है
अदलिया-न्यायिक व्यवस्था, अहले ज़र-पैसे वाले, मुफ़्लिसी-निर्धनता, ख़ुलूस-सच्चा प्यार,
उजलत-जल्दी, पैहम-लगातार, खिल्वत-अकेलापन, ज़ीनत ए दुनिया-
दुनिया की सजावट,
हश्र-अंत, ज़ुल्मत-अँधेरा, है रवां किस सिम्त-किस
दिशा में जा रहा है,
तौक़ ए ग़ुलामी- परतंत्रता का फन्दा, ज़ीस्त-ज़िन्दगी
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