हम थे बरहम ज़रा ज़रा ख़ुद से
हम थे बरहम ज़रा ज़रा ख़ुद से
कोई रिश्ता नहीं रखा ख़ुद से
आज माज़ी से हम भी मिल आए
इन्तेकाम इस तरह लिया ख़ुद से
उस ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन
मैं ने ख़ुद ही गिला किया ख़ुद से
तेरी हर एक जुस्तजू है अबस
मैं ने सरगोशी में कहा ख़ुद से
हिम्मतों ने इरादा बाँध लिया
हो गया हर किवाड़ वा ख़ुद से
सब तबीबों ने हाथ खेंच लिए
ज़ख्म फिर बन गया दवा ख़ुद से
गो जुदा मैं रही ज़माने से
मेरा दामन नहीं बचा ख़ुद से
तोड़ दूं अब तमाम ज़ंजीरें
कब तलक मैं रहूँ जुदा ख़ुद से
कौन रहता है मुझ में छुप के मुदाम
कैसा रिश्ता ये है मेरा ख़ुद से
फिर निभाया भी उस को जाँ दे कर
एक वादा जो कर लिया ख़ुद से
बोझ कब तक वजूद का ढोएँ
ख़ुद को "मुमताज़" ले चुरा ख़ुद से
बरहम-नाराज़, माज़ी-भूतकाल, इंतेक़ाम-बदला, गिला-शिकायत, जुस्तजू-तलाश, सरगोशी-फुसफुसा कर, वा हो गया-खुल गया, तबीबों ने-वैद्यों
ने, गो-हालांकि, मुदाम-हमेशा
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