उलझनें मुख़्तसर नहीं होतीं

उलझनें मुख़्तसर नहीं होतीं
उल्फ़तें कारगर नहीं होतीं

बेख़ुदी का कमाल है ये भी
लग़्ज़िशें जान कर नहीं होतीं

ज़िन्दगी डूब ही गई होती
ये निगाहें जो तर नहीं होतीं

ये इनायत है वक़्त की वर्ना
हसरतें दर ब दर नहीं होतीं

या इलाही कोई इलाज-ए-हयात
अब ये घड़ियाँ बसर नहीं होतीं

नारसाई नसीब है वर्ना
आहें महव-ए-सफ़र नहीं होतीं

मंज़िलें दूर तो नहीं इतनी
तय ये राहें मगर नहीं होतीं

हम भी मुमताज़ सो गए होते
कुछ उम्मीदें अगर नहीं होतीं


मुख़्तसर कम, बेख़ुदी अपने आप में न होना, लग़्ज़िशें लड़खड़ाहट, इलाही अल्लाह, हयात ज़िन्दगी, नारसाई न पहुँच सकना, महव-ए-सफ़र सफ़र में गुम 

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते