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अब यहाँ कुछ बचा नहीं बाक़ी

अब यहाँ कुछ बचा नहीं बाक़ी कोई ग़म तक रहा नहीं बाक़ी कोई उम्मीद न हसरत न गुमाँ अब कोई वसवसा नहीं बाक़ी ले गई वक़्त की आँधी सब कुछ एक भी नक़्श-ए-पा नहीं बाक़ी आज लौटा दिया उसे हर ख़्वाब कोई एहसाँ रखा नहीं बाक़ी जिस में थी धुन्द बुझती यादों की अब तो वो भी ख़ला नहीं बाक़ी जी रहे थे तेरे तग़ाफुल पर वो भी अब आसरा नहीं बाक़ी बह गया अब तो दिल का सब लावा ज़ब्त का वो नशा नहीं बाक़ी दर्द हैं , उलझनें हैं , तूफ़ाँ हैं मुझ में “ मुमताज़ ” क्या नहीं बाक़ी 

नया साल

कारगाह-ए-यौम-ए-नौ का खुल रहा है पहला बाब सुबह की पेशानी पर चुनता है अफ़शाँ आफ़ताब जाग उठी है लेती है अंगड़ाइयाँ सुबह-ए-ख़िराम अपने अपने काम पर सब चल दिये हैं ख़ास-ओ-आम अपनी अपनी फ़िक्र-ओ-फ़न में हौसले महलूल हैं बूढ़े , बच्चे , मर्द-ओ-ज़न सब काम में मशग़ूल हैं मर गया इक साल और पैदा हुआ है एक साल इक तरफ़ माज़ी का ग़म है , इक तरफ़ है जश्न-ए-हाल चल पड़ी फिर ज़िन्दगी रंगीं रिदा ओढ़े हुए कामरानी की सुरीली सी सदा ओढ़े हुए आरज़ूओं के लबों पर फिर तबस्सुम खिल उठा जाग उठा अंगड़ाइयाँ ले कर के , मुस्तक़बिल उठा हसरतें मचली हैं फिर सब के लबों पर है दुआ काश अब के साल सच हो जाए सब सोचा हुआ मैं भी करती हूँ दुआएँ दोस्तों के वास्ते या ख़ुदा हमवार कर दे हर किसी के रास्ते हर किसी को दे ख़ुशी , हर एक की हसरत निकाल ले के रहमत का ख़ज़ाना आए नौ मौलूद साल    

लालच

नहीं है बेसबब ये आबिद-ए-मक़सूर का लालच हमें ख़ौफ़-ए-ख़ुदा है , शेख़ को है हूर का लालच ये ग़ैरों की क़यादत , ये सियासी पल्टियाँ इन की इन्हें हर दम रहा है मुर्ग़ी-ए-तंदूर का लालच हटाओ ऐ मियाँ , बस माल आता है तो आने दो हमेशा बढ़ता रहता है दिल-ए-मसरूर का लालच कभी आँखों से ज़ाहिर है हवस की काइयाँ गीरी कभी दिल में निहाँ है बादा-ए-अंगूर का लालच

तड़प को हमनवा, रूह-ओ-बतन को कर्बला कर लो

तड़प को हमनवा , रूह-ओ-बतन को कर्बला कर लो ज़रा कुछ देर को माज़ी से भी कुछ सिलसिला कर लो इबादत नामुकम्मल है अधूरा है हर इक सजदा असास-ए-ज़ह्न-ओ-दिल को भी न जब तक मुब्तिला कर लो थकन को पाँव की बेड़ी बना लेने से क्या होगा सफ़र आसान हो जाएगा , थोड़ा हौसला कर लो यही तनहाई तुम को ले के फिर जाएगी मंज़िल तक जुनूँ को राहबर कर लो , ख़ुदी को क़ाफ़िला कर लो बलन्दी भी झुकेगी हौसले के सामने बेशक जो ख़ू परवाज़ को , काविश को अपना मशग़ला कर लो सुलग उट्ठे हर इक एहसास हर इक ज़ख़्म खिल उट्ठे अगर अपनी तमन्नाओं से भी कुछ सिलसिला कर लो सियाही जो निगल जाए सरासर रौशनी को भी तो फिर हक़ है कहाँ बातिल है क्या ख़ुद फ़ैसला कर लो ज़माने भर से नालाँ हो , शिकायत है ख़ुदा से भी कभी “ मुमताज़ ” अपने आप से भी तो गिला कर लो  

चार दिन की ख़ुशकलामी, ज़िन्दगी भर का अज़ाब

चार दिन की ख़ुशकलामी , ज़िन्दगी भर का अज़ाब इश्क़ की हस्ती ही क्या है , एक झोंका , इक सराब कोई जज़्बा , कोई हाजत , आरज़ू कोई ,   न ख़्वाब इस हक़ीक़त की ज़मीं पर हम ने बस पाया सराब ज़िन्दगी फिर मांगती है लम्हा लम्हा का हिसाब सर झुकाए हम खड़े हैं , अब इसे क्या दें जवाब कैसा ये सैलाब आया दिल के रेगिस्तान में ज़िन्दगी है रेज़ा रेज़ा , हसरतें हैं आब आब हर घड़ी दिल की ज़मीं पर रक़्स करती हैं हनोज़ इन शिकस्ता हसरतों को क्यूँ नहीं आता हिजाब इस ज़मीन-ए-ज़ात में अब ज़लज़ला आने को है ज़िन्दगी करने चली है आरज़ू का एहतेसाब अब गिला भी क्या करें आवारगी से दोस्तो हम तो ख़ुद करते रहे हैं वहशतों का इंतेख़ाब दिल जो मुतहर्रिक हुआ तो मिट गया सारा जमूद हस्ती-ए-बेहिस में यारो आ चुका है इन्क़ेलाब छूटते जाते हैं पीछे ख़ाल-ओ-ख़द , नाम-ओ-वजूद अलग़रज़ हम वक़्त से “ मुमताज़ ” अब हैं हमरक़ाब

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं खिलखिलाते लम्हों से ज़िन्दगी चुराते हैं कोई ख़्वाब भी हम को ढूँढने न आ पाए नक़्श अब के पाओं के हम मिटाते जाते हैं ख़ूब हम समझते हैं रहनुमा की सब चालें जान बूझ कर अक्सर हम फ़रेब खाते हैं रौशनी तो क्या होगी झिलमिलाते अश्कों से इन रवाँ चराग़ों को आज हम बुझाते हैं दास्ताँ में तो उन का ज़िक्र तक नहीं आया उन को क्या हुआ आख़िर आँख क्यूँ चुराते हैं दिल के इस बयाबाँ में कोई तो नहीं आता आज फिर यहाँ किस के साए सरसराते हैं ढूंढती रहे “ मुमताज़ ” अब हमें सियहबख़्ती दास्ताँ अधूरी हम अब के छोड़ जाते हैं

जब तलक लब वज़ू नहीं करते

जब तलक लब वज़ू नहीं करते हम तेरी गुफ़्तगू नहीं करते हम अबस हा-ओ-हू नहीं करते ख़ामुशी को लहू नहीं करते ख़ुद हमारी तलाश में है तू हम तेरी जुस्तजू नहीं करते डर गए हैं शिकस्त से इतना अब कोई आरज़ू नहीं करते हर खुले ज़ख़्म में है अक्स उस का यूँ इन्हें हम रफ़ू नहीं करते ज़ख़्म भी दे , वो हाल भी पूछे ये इनायत अदू नहीं करते सारे एहसास मुंतशिर हैं अब क्या सितम रंग-ओ-बू नहीं करते दिल को इसरार जिस प है इतना हम वही गुफ़्तगू नहीं करते ख़ाक होने लगे वो मुर्दा पल अब वो  “ मुमताज़ ”  बू नहीं करते