हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं
हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं
खिलखिलाते लम्हों से ज़िन्दगी चुराते हैं
कोई ख़्वाब भी हम को ढूँढने न आ पाए
नक़्श अब के पाओं के हम मिटाते जाते हैं
ख़ूब हम समझते हैं रहनुमा की सब चालें
जान बूझ कर अक्सर हम फ़रेब खाते हैं
रौशनी तो क्या होगी झिलमिलाते अश्कों से
इन रवाँ चराग़ों को आज हम बुझाते हैं
दास्ताँ में तो उन का ज़िक्र तक नहीं आया
उन को क्या हुआ आख़िर आँख क्यूँ चुराते हैं
दिल के इस बयाबाँ में कोई तो नहीं आता
आज फिर यहाँ किस के साए सरसराते हैं
ढूंढती रहे “मुमताज़” अब हमें सियहबख़्ती
दास्ताँ अधूरी हम अब के छोड़ जाते हैं
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