चार दिन की ख़ुशकलामी, ज़िन्दगी भर का अज़ाब
चार दिन की ख़ुशकलामी, ज़िन्दगी भर का अज़ाब
इश्क़ की हस्ती ही क्या है, एक झोंका, इक सराब
कोई जज़्बा, कोई हाजत, आरज़ू कोई, न ख़्वाब
इस हक़ीक़त की ज़मीं पर हम ने बस पाया सराब
ज़िन्दगी फिर मांगती है लम्हा लम्हा का हिसाब
सर झुकाए हम खड़े हैं, अब इसे क्या दें जवाब
कैसा ये सैलाब आया दिल के रेगिस्तान में
ज़िन्दगी है रेज़ा रेज़ा, हसरतें हैं आब आब
हर घड़ी दिल की ज़मीं पर रक़्स करती हैं हनोज़
इन शिकस्ता हसरतों को क्यूँ नहीं आता हिजाब
इस ज़मीन-ए-ज़ात में अब ज़लज़ला आने को है
ज़िन्दगी करने चली है आरज़ू का एहतेसाब
अब गिला भी क्या करें आवारगी से दोस्तो
हम तो ख़ुद करते रहे हैं वहशतों का इंतेख़ाब
दिल जो मुतहर्रिक हुआ तो मिट गया सारा जमूद
हस्ती-ए-बेहिस में यारो आ चुका है इन्क़ेलाब
छूटते जाते हैं पीछे ख़ाल-ओ-ख़द, नाम-ओ-वजूद
अलग़रज़ हम वक़्त से “मुमताज़” अब हैं हमरक़ाब
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