नज़्म – दूसरा गाँधी
समंदर से उठी , देहली तलक फिर छा गई आँधी जो आमादा हुआ अनशन पे अगली क़ौम का गाँधी हुकूमत से कहा ललकार कर , अब सामने आओ मिटा डालो करप्शन या तो कुर्सी से उतर जाओ जो सदियों सदियों से कुचले हुए लूटे हुए थे हम जो मज़हब ज़ात के टुकड़ों में बस टूटे हुए थे हम हमारे मुंतशिर थे दिल न जाने कितने ख़ानों में धरम में , ज़ात में , क़ौमों में , रक़्बों में , ज़बानों में हमारी हर नफ़स बेजान थी , जज़्बात मुर्दा थे हर इक हसरत हेरासाँ थी , सभी जज़्बात मुर्दा थे वो बहर-ए-बेकराँ हसरत का फिर अंगड़ाई ले उठ्ठा नया जज़्बा , नई ताक़त , नई बीनाई ले उठ्ठा वो बेकस , बेबस-ओ-मजबूर एहसासात जाग उठ्ठे मिटा डाला था जिन को वक़्त ने , जज़्बात जाग उठ्ठे पुकार इस देश की धरती की हम को इक जगह लाई हज़ारे ने ज़रा आवाज़ दी , दुनिया सिमट आई कमर कस कर उठा हर देशवासी अपनी ताक़त भर झुका सकता नहीं कोई हमें अब अपने क़दमों पर हमारे सब्र का अब इम्तेहाँ कोई नहीं लेगा हिसाब अब पाई पाई का सभी से बिल यक़ीं लेगा हमारे देश के दिल की सदा अन्ना हज़ारे है नई इस क़ौम का अब रहनुमा अन्ना हज़ारे है