नज़्म पार्ट 1 - उम्मीद


मैं तेरी मुन्तज़िर ता उम्र जानाँ रह भी सकती हूँ
हर इक रंज ओ अलम, हर इक मुसीबत सह भी सकती हूँ
है इस में ज़िन्दगी, मुझ को ये मरना भी गवारा है
तुम्हारी इक नज़र जानां, मेरे दिल का सहारा है

रिहा हो कर तुम्हारी क़ैद से आख़िर कहाँ जाऊं
तुम्हारा साथ हो, तो आसमाँ धरती पे ले आऊं
तसव्वुर की ज़मीं का गोशा गोशा तुम ने घेरा है
तुम्हारे रास्ते की ख़ाक में मेरा बसेरा है

बुझाऊं जितना, आतिश इश्क़ की उतना भड़कती है
तुम्हारी जुस्तजू में ज़िंदगी जानां, धड़कती है
मेरी राहों में ता हद्द ए नज़र उल्फ़त ही उल्फ़त है
बताऊँ क्या, तुम्हारे हिज्र में भी कैसी लज़्ज़त है
जुबां से शबनमी यादों के क़तरे चाट लेती हूँ
ये घड़ियाँ हिज्र की, उम्मीद से मैं काट लेती हूँ

मगर उम्मीद की लड़ियों के मोती बिखरे जाते हैं
कि दिल में गूंजते खद्शात मुझ को आज़माते हैं
मुक़द्दर से ये दिल अब के दफ़ा जो जंग हारा है
तमन्ना रेज़ा रेज़ा है, मोहब्बत पारा पारा है

मगर फिर सोचती हूँ, मात इन हालात की होगी
सहर भी कोई तो आख़िर अँधेरी रात की होगी
कभी कोई किरन सूरज का भी पैग़ाम लाएगी
तजल्ली भी कभी तारीकियों में जगमगाएगी

कभी तो ज़ुल्मतों की रात से राहत तुलू होगी
उफ़क़ से बदनसीबी के अभी क़िस्मत तुलू होगी

मुन्तज़िर-इंतज़ार में, ता उम्र-ज़िंदगी भर, रंज ओ अलम-दुःख और दर्द, गोशा-कोना, तसव्वुर-कल्पना, आतिश-आग, जुस्तजू-तलाश, लज़्ज़त-स्वाद, क़तरे-बूँदें, तुलू-उदय


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