गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में
गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में यही इक ख़ू ग़लत है हम मोहब्बत के सफ़ीरों में हुकूमत है हमारी दिल की दुनिया के अमीरों में है दिल सुल्तान लेकिन है नशिस्त अपनी फ़क़ीरों में लहू बन कर रवाँ वो जिस्म की रग रग में था शायद ख़ुदा ने लिख दिया था उसको हाथों की लकीरों में कोई दीवाना शायद रो पड़ा है फूट कर यारो क़फ़स की तीलियाँ जलती हैं , हलचल है असीरों में तमाशा देखता है जो खड़ा गुलशन के जलने का वो फ़ितनासाज़ भी रहता है अपने दस्तगीरों में अना कोई , न है पिनदार , ग़ैरत है , न ख़ुद्दारी ज़ईफ़ी ये कहाँ से आ गई अपने ज़मीरों में इरादा क्या है , जाने कश्तियाँ वो क्यूँ बनाता है वो शहज़ादा जो रहता है मेरे दिल के जज़ीरों में सदा है , चीख़ है , इक दर्द है , “ मुमताज़ ” मातम है लहू की धार है सुर की जगह अबके नफ़ीरों में ख़ू – आदत , सफ़ीरों में – प्रतिनिधियों में , नशिस्त – बैठक , क़फ़स – पिंजरा , असीरों – क़ैदियों , दस्तगीरों – दिलासा देने वालों , पिनदार – इज़्ज़त , ज़ईफ़ी – कमज़ोरी , नफ़ीरों - बांसुरियों