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वो तेवर क्या हुए तेरे, कहाँ वो नाज़ ए पिन्दारी

वो तेवर क्या हुए तेरे , कहाँ वो नाज़ ए पिन्दारी न वो जलवा , न वो हस्ती , न वो तेज़ी , न तर्रारी मिटा डालेगा तुझ को ये तेरा अंदाज़ ए सरशारी कहीं का भी न छोड़ेगी तुझे तेरी ये ख़ुद्दारी वही दिन हैं , वही रातें , वही रातों की बेदारी वही बेहिस तमन्ना , फिर वही हर ग़म से बेज़ारी न आया अब तलक ये एक फ़न हम को छलावे का लगावट की सभी बातें , मोहब्बत की अदाकारी ये शिद्दत बेक़रारी की , ये ज़ख़्मी आरज़ू दिल की कटीं यूँ तो कई रातें , मगर ये रात है भारी हक़ीक़त है , मगर फिर भी ज़माना भूल जाता है जला देती है हस्ती को मोहब्बत की ये चिंगारी ये दुनिया है , यहाँ है चार सू बातिल का हंगामा छुपाती फिर रही है मुंह यहाँ सच्चाई बेचारी मोहब्बत बिकती है , फ़न बिकता है , बिकती है सच्चाई ये वो दौर ए तिजारत है , के है हर फर्द ब्योपारी ग़रज़ , मतलब परस्ती , बेहिसी , " मुमताज़" बेदीनी वतन को खाए जाती है यही मतलब की बीमारी नाज़ ए पिन्दारी-गर्व के नखरे , अंदाज़ ए सरशारी- मस्ती का अंदाज़ , बेदारी-जागना , बेहिस तमन्ना-बेएहसास इच्छा , बेज़ारी- ऊब , फ़न-कला , अदाकारी-अभ

ज़िन्दगी का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है

ज़िन्दगी का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है पेशतर नज़रों के हस्ती का हसीं अंजाम है खो गए जाने कहाँ वो क़ाफ़िले , और अब तो बस एक हम हैं , इक हमारी ज़िन्दगी की शाम है ख़ाली दिल , ख़ाली उम्मीदें , ख़ाली दामन , ख़ाली हाथ एक सरमाया हमारा ये ख़याल-ए-ख़ाम है बेरुख़ी , नफ़रत , अदावत , हर अदा उनकी बहक़ हम ने पाला है अना को हम पे ये इल्ज़ाम है ये जहान-ए-आरज़ू अपने लिए बेकार है हमको तो अपनी इसी बस बेख़ुदी से काम है एक हल्की सी शरारत , एक मीठा सा सुकूँ लम्हा भर का ये सफ़र इस ज़ीस्त का इनआम है बढ़ चले हैं मंज़िलों की सिम्त फिर अपने क़दम दूर मुँह ढाँपे खड़ी वो गर्दिश-ए-अय्याम है चार पल में कर चलें “ मुमताज़ ” कुछ कारीगरी लम्हा लम्हा ज़िन्दगी का मौत का पैग़ाम है ख़याल-ए-ख़ाम – झूठा ख़याल , बहक़ – जायज़ 

एक छोटी सी पैरोडी

नेट पर हम तुम्हें क्या बताएँ किस क़दर चोट खाए हुए हैं फ़ेसबुक से मिटाए गए हैं व्हाट्स अप के सताए हुए हैं आज तक हम कभी न नहाए मैले कपड़े पहन कर हम आए आज ही हम ने बदले हैं कपड़े आज ही हम नहाए हुए हैं 

साँस ख़ामोश है, जाँकनी रह गई

साँस ख़ामोश है , जाँकनी रह गई एक तन्हा शमअ बस जली रह गई कारवाँ तो ग़ुबारों में गुम हो गया इक निगह रास्ते पर जमी रह गई ले गया जाते जाते वो हर इक निशाँ बस मेरी आँख में इक नमी रह गई ऐसी बढ़ती गईं ग़म की तारीकियाँ मुँह छुपाती हुई हर ख़ुशी रह गई उस ने जाते हुए मुड़ के देखा नहीं एक ख़्वाहिश सी दिल में जगी रह गई वक़्त के धारों में हर निशाँ धुल गया एक तस्वीर दिल पर बनी रह गई मिट गई वक़्त के साथ हर दास्ताँ याद धुंधली सी है जो बची रह गई उसने “ मुमताज़ ” हमको जो बख़्शी थी वो आरज़ू की अधूरी लड़ी रह गई जाँकनी – आख़िरी वक़्त , तारीकियाँ – अँधेरे

हौसला जिस दिन से तेरा बेतकाँ हो जाएगा

हौसला जिस दिन से तेरा बेतकाँ हो जाएगा आस्माँ उस रोज़ तेरा पासबाँ हो जाएगा अपनी हस्ती को मिटा डाला था जिसके वास्ते क्या ख़बर थी वो भी इक दिन बदगुमाँ हो जाएगा कर्ब को इक हुस्न दे दे , ज़ख़्म कर आरास्ता रास्ते का हर नज़ारा ख़ूँचकाँ हो जाएगा सर्द कर दे आग दिल की वर्ना इक दिन हमनशीं तेरा हर इक राज़ चेहरे से अयाँ हो जाएगा ये लहू मक़्तूल का भी रंग लाएगा ज़रूर ऐ सितमगर तू भी इक दिन बेनिशाँ हो जाएगा फ़ैसला वो जिसको हमने दे दी सारी ज़िन्दगी किसने सोचा था कि इक दिन नागहाँ हो जाएगा सोच लो “ मुमताज़ ” सौ सौ बार क़ब्ल-ए-आरज़ू इस अमल से तो तुम्हारा ही ज़ियाँ हो जाएगा बेतकाँ – अनथक , पासबाँ – रक्षक , कर्ब – दर्द , आरास्ता – सजा हुआ , ख़ूँचकाँ – ख़ून टपकता हुआ , हमनशीं – साथ बैठने वाला , अयाँ – ज़ाहिर , मक़्तूल – जिसका ख़ून हुआ हो , नागहाँ – अचानक , क़ब्ल-ए-आरज़ू – इच्छा से पहले , अमल – काम , ज़ियाँ – नुक़सान 

पलट के दूर से अक्सर सदाएं देता है

पलट के दूर से अक्सर सदाएं देता है तलब तो ज़हर की है , वो दवाएं देता है पलट के आ कभी इस सिम्त अब्र ए आवारा तुझे सुलगता ये सहरा सदाएं देता है लिबास उतार के हर बार ज़र्द पत्तों का नई , दरख्तों को मौसम क़बाएं देता है अजीब ढंग से करता है दुश्मनी वो भी कि ज़िन्दगी कि मुझे वो दुआएं देता है बुझाते फिरते हैं जो लोग हस्तियों के चिराग़ उन्हें भी मेहर ये अपनी शुआएँ देता है सुनाई देती है आहट बहार की जब भी वो मेरी रूह को सौ सौ खिजाएँ देता है ज़रा सी बुझने जो लगती है दिल की आग कभी ग़म ए हयात उसे फिर हवाएं देता है है जिस की रूह भी "मुमताज़" तार तार बहुत वो शख्स नंगे सरों को रिदाएँ देता है इस सिम्त- इस तरफ , अब्र-ए-आवारा-आवारा बादल , सहरा- रेगिस्तान , ज़र्द पत्तों का- पीले पत्तों का , क़बाएं- पोशाकें , मेहर- सूरज , शुआएँ- किरणें , खिजाएँ- पतझड़ , हयात-ज़िंदगी , रूह-आत्मा , रिदाएँ- चादरें 

ज़ब्त की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं

ज़ब्त की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं शम्स की ज़द में बलन्दी की उड़ानें आ गईं फिर सफ़र में आज वो इक मोड़ ऐसा आ गया याद हमको कुछ पुरानी दास्तानें आ गईं फिर वही रंगीं ख़ताएँ , लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन आज फिर दाँतों तले अपनी ज़बानें आ गईं इक परिंदे ने अभी खोले ही थे उड़ने को पर हाथ में हर इक शिकारी के कमानें आ गईं रंग रौग़न से सजे बीमार चेहरों की क़तार बिकती है जिनमें मोहब्बत वो दुकानें आ गईं हर क़दम पर अपनी ही ख़ुद्दारियाँ हाइल रहीं रास्ता आसान था लेकिन चट्टानें आ गईं फ़िक्र बेटी की लिए इक बाप रुख़सत हो गया ज़ुल्फ़ में चांदी , उठानों पर ढलानें आ गईं बेहिसी “ मुमताज़ ” दौर-ए-मस्लेहत की देन है ज़द में माल-ओ-ज़र के अब इंसाँ की जानें आ गईं ज़ब्त – सहनशीलता , तकानें – थकानें , शम्स – सूरज , ख़ताएँ – भूलें , लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन – ईमान को तोड़ देने वाला मज़ा , हाइल – अडचन , माल-ओ-ज़र – दौलत और सोना