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जब ये बेबस आरज़ूएँ हद से बाहर हो गईं

जब ये बेबस आरज़ूएँ हद से बाहर हो गईं ज़ुलमतों ने बाल खोले , चीख़ कर फिर रो पड़ीं आस्माँ का ये क़हर , ये ज़लज़ले की साअतें टूटे घर , गिरते शजर और रक़्स करती ये ज़मीं इस बरस बारान-ए-रहमत ऐसा बरसा टूट कर बह चुके हैं घर , शजर के साए में बैठे मकीं हुस्न की मग़रुरियत से कोई तो ये सच कहे दूर हक़ से तुझ को कर देगा फ़रेब-ए-आबगीं जब तसव्वर उसका इतनी आँच देता है तो फिर कैसी गुज़रे जो नज़र आए वो जल्वा आतिशीं जो ज़मीं बख़्शी है तू ने वो बहुत कमज़ोर है धँसती जाती है सतह , अब मैं कहाँ रक्खूँ जबीं तू ने भी क्या ख़ूब सीखा है यहाँ जीने का फ़न ज़ख़्म हैं “ मुमताज़ ” गुलरू , अश्क तेरे दिलनशीं ज़ुलमतों ने – अँधेरों ने , ज़लज़ले की साअतें – भूकंप की घड़ियाँ , शजर – पेड़ , रक़्स – नाच , बारान-ए-रहमत – रहमत की बारिश , मकीं – मकान में रहने वाले , हक़ – सच्चाई , आबगीं – शीशा , आतिशीं – जलता हुआ , जबीं – माथा , गुलरू – फूल से चेहरे वाले , दिलनशीं – दिल में बसने वाले 

आधे अधूरे इस रिश्ते का बोझ उठाएँ कब तक

आधे अधूरे इस रिश्ते का बोझ उठाएँ कब तक ये दिल तो नादान है इसको हम समझाएँ कब तक ये कह कर ख़ामोश हो गई इस दुनिया की हलचल इतनी लंबी रात में तेरा दिल बहलाएँ कब तक जाने कितनी शामें खोईं , कितनी रातें गुज़रीं हम घर की दहलीज़ पे आख़िर दीप जलाएँ कब तक मेरी राह अलग है और जुदा है राह तुम्हारी ऐसे में हम इक दूजे का साथ निभाएँ कब तक तश्नालबी तक़दीर है तेरी ऐ प्यासी तन्हाई अश्कों से “ मुमताज़ ” तेरी हम प्यास बुझाएँ कब तक 

वक़्त से टूटे हर इक लम्हे की तकरार हूँ मैं

वक़्त से टूटे हर इक लम्हे की तकरार हूँ मैं नाज़ है जिस पे मुक़द्दर को वो शहकार हूँ मैं अपनी हस्ती के लिए ख़ुद ही इक आज़ार हूँ मैं वक़्त के दोश पे रक्खा हुआ इक बार हूँ मैं क्या कहूँ कौन सी उलझन में गिरफ़्तार हूँ मैं कैसे कह दूँ कि तेरे हिज्र की बीमार हूँ मैं ये तमन्नाओं की महरूमी ये शब की वुसअत सो गई रात भी लेकिन अभी बेदार हूँ मैं क्या करूँ , क्या न करूँ , कैसे जियूँ , क्यूँ मैं जियूँ आजकल ऐसी ही उलझन से तो दोचार हूँ मैं क़ैद हूँ अपनी ही सोचों के क़वी हलक़े में अपनी ही राह में हाइल कोई कोहसार हूँ मैं ऐसा लगता है सराबों के परे है मंज़िल वक़्त के जलते हुए सहरा के इस पार हूँ मैं मस्लेहत कोश अज़ाबों के भरे दलदल में आरज़ूओं के हसीं ख़्वाब का इज़हार हूँ मैं पाँव बोझल हैं , बदन चूर थकन से “ मुमताज़ ” अपनी नाकाम तमन्नाओं से बेज़ार हूँ मैं तक़रार – दोहराव , आज़ार – बीमारी , दोश – कांधा , बार – बोझ , वुसअत – विस्तार , बेदार – जागना , क़वी – मज़बूत , हलक़े में – घेरे में , हाइल – अडा हुआ , कोहसार – पहाड़ , सराबों के परे – मरीचिकाओं के पीछे

अब जलन है, न कहीं शोर, न तन्हाई है

अब जलन है , न कहीं शोर , न तन्हाई है चार सू बजती हुई मौत की शहनाई है आज हर ख़्वाब-ए-परेशान से दिल बदज़न है और तबीयत भी तमन्नाओं से उकताई है याद रक्खूँ तो तुझे कौन सी सूरत रक्खूँ भूल जाने में तो कुछ और भी रुसवाई है आज फिर मैं ने मोहब्बत का भरम तोड़ दिया आज फिर उससे न मिलने की क़सम खाई है ज़हर पीते हैं तमन्नाओं की नाकामी का हम ने हर रोज़ जो मरने की सज़ा पाई है अब तो सौदा-ए-मोहब्बत का मदावा हो जाए अब तख़य्युल को भी ज़ंजीर तो पहनाई है हर तरफ़ आग है , हर सिम्त है नफ़रत का धुआँ कैसी मंज़िल पे मुझे आरज़ू ले आई है ख़्वाब में ही कभी आ जा कि मिटे दिल की जलन ज़िन्दगी अब भी तेरी दीद की शैदाई है हम को हर हाल में “ मुमताज़ ” सफ़र करना है जब तलक जिस्म में ख़ूँ , आँख में बीनाई है बदज़न – नाराज़ , सौदा-ए-मोहब्बत – मोहब्बत का पागलपन , मदावा – इलाज , तख़य्युल – ख़याल , दीद की – दर्शन की , शैदाई – चाहने वाला , बीनाई – देखने की क्षमता 

हमसफ़र, हमराज़, हमसर, हमनवा कोई नहीं

हमसफ़र , हमराज़ , हमसर , हमनवा कोई नहीं खो चुके हैं हम यहाँ अपना पता कोई नहीं वो हमारे हाल से रहते हैं अक्सर बेनियाज़ है सज़ा इतनी बड़ी लेकिन ख़ता कोई नहीं जिसपे डाली इक नज़र , दुनिया से बेगाना हुआ साहिरी से उन निगाहों की बचा कोई नहीं बेख़ुदी है , मस्तियाँ हैं , है अजब दीवानगी इश्क़ जैसा इस जहाँ में मैकदा कोई नहीं एक अनसुलझा मोअम्मा ही रहा तेरा करम उम्र भर की आज़माइश का सिला कोई नहीं एक साया सा हमारे साथ रहता है सदा ढूंढते फिरते हैं हम लेकिन मिला कोई नहीं दश्त में , बस्ती में , हर महफ़िल में , हर तन्हाई में तू ही तू है हर जगह , तेरे सिवा कोई नहीं हम ने ख़ुद को खो के आख़िर आप को पा ही लिया आपसे “ मुमताज़ ” हमको अब गिला कोई नहीं  हमसफ़र – सफ़र का साथी , हमराज़ – राज़ में शामिल , हमसर – साथी , हमनवा – बातें करने वाला , बेगाना – पराया , साहिरी – जादूगरी , मोअम्मा – पहेली 

सफ़र

दोस्त बन कर मिले अजनबी हो गए राह चलते हुए हमसफ़र खो गए रेगज़ार-ए-कुशादा का लंबा सफ़र और तनहाई का सिलसिला पेशतर रास्ते में निशाँ कैसे कैसे मिले उनके नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी ऐसे मिले आँधियों में सफ़र के निशाँ खो गए और ग़ुबारों में वो नक़्श-ए-पा खो गए रेगज़ार-ए-कुशादा – विशाल रेगिस्तान , पेशतर – सामने , नक़्श-ए-कफ़-ए-पा – पाँव के निशाँ 

ये दिल इक बार फिर तेरी गली का रास्ता ढूँढे

ये दिल इक बार फिर तेरी गली का रास्ता ढूँढे दयार-ए-अजनबी में दर ब दर इक आशना ढूँढे किसी तपते हुए सहरा से गुज़रे हो गई मुद्दत तो ये दर्द आशना दिल पाँव में अब आबला ढूँढे ख़ुलूस , अख़्लाक़ , चाहत की हक़ीक़त देख ली जब से दिल-ए-तन्हा मोहब्बत के लिए इक आईना ढूँढे ये आईना भी अब धुंधला गया है गर्द-ए-वहशत से कहाँ से हमनवा , हमराज़ कोई बारहा ढूँढे मोहब्बत तर्क की , दिल से मगर “ मुमताज़ ” है बेबस ये दिल अब भी तेरी जानिब से कोई राब्ता ढूँढे दयार – शहर , आशना – परिचित , आबला – छाला , ख़ुलूस – सच्चाई , , अख़्लाक़ – अच्छा बर्ताव , हमनवा – जिससे बात कर सकें , हमराज़ – जिसको राज़ बता सकें , बारहा – बार बार , तर्क – त्याग , जानिब – तरफ़ , राब्ता – संपर्क