जब ये बेबस आरज़ूएँ हद से बाहर हो गईं

जब ये बेबस आरज़ूएँ हद से बाहर हो गईं
ज़ुलमतों ने बाल खोले, चीख़ कर फिर रो पड़ीं

आस्माँ का ये क़हर, ये ज़लज़ले की साअतें
टूटे घर, गिरते शजर और रक़्स करती ये ज़मीं

इस बरस बारान-ए-रहमत ऐसा बरसा टूट कर
बह चुके हैं घर, शजर के साए में बैठे मकीं

हुस्न की मग़रुरियत से कोई तो ये सच कहे
दूर हक़ से तुझ को कर देगा फ़रेब-ए-आबगीं

जब तसव्वर उसका इतनी आँच देता है तो फिर
कैसी गुज़रे जो नज़र आए वो जल्वा आतिशीं

जो ज़मीं बख़्शी है तू ने वो बहुत कमज़ोर है
धँसती जाती है सतह, अब मैं कहाँ रक्खूँ जबीं

तू ने भी क्या ख़ूब सीखा है यहाँ जीने का फ़न
ज़ख़्म हैं मुमताज़ गुलरू, अश्क तेरे दिलनशीं


ज़ुलमतों ने अँधेरों ने, ज़लज़ले की साअतें भूकंप की घड़ियाँ, शजर पेड़, रक़्स नाच, बारान-ए-रहमत रहमत की बारिश, मकीं मकान में रहने वाले, हक़ सच्चाई, आबगीं शीशा, आतिशीं जलता हुआ, जबीं माथा, गुलरू फूल से चेहरे वाले, दिलनशीं दिल में बसने वाले 

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