आधे अधूरे इस रिश्ते का बोझ उठाएँ कब तक
आधे अधूरे इस रिश्ते का बोझ उठाएँ कब तक ये दिल तो नादान है इसको हम समझाएँ कब तक ये कह कर ख़ामोश हो गई इस दुनिया की हलचल इतनी लंबी रात में तेरा दिल बहलाएँ कब तक जाने कितनी शामें खोईं , कितनी रातें गुज़रीं हम घर की दहलीज़ पे आख़िर दीप जलाएँ कब तक मेरी राह अलग है और जुदा है राह तुम्हारी ऐसे में हम इक दूजे का साथ निभाएँ कब तक तश्नालबी तक़दीर है तेरी ऐ प्यासी तन्हाई अश्कों से “ मुमताज़ ” तेरी हम प्यास बुझाएँ कब तक