हम कहाँ हैं हमें ख़बर भी नहीं
हम कहाँ हैं हमें ख़बर भी नहीं रास्ता कोई मो ’ तबर भी नहीं हम ने तामीर जो किया है जहाँ उसमें इक साया-ए-शजर भी नहीं सोच की वुसअतें फ़लक से परे पाँव बोझल हैं , बाल-ओ-पर भी नहीं सर पे शमशीर-ए-ख़ौफ़-ए-दुनिया भी और बग़ावत बिना बसर भी नहीं संग आते हैं किस उम्मीद पे अब पेड़ पर अब कोई समर भी नहीं ये तज़ाद-ए-हयात क्या कहिए रोए हैं और आँख तर भी नहीं हम नहीं ख़ुश ये इक हक़ीक़त है हम मगर इतने मुंतशर भी नहीं जिस पे “ मुमताज़ ” रख के सर रोएँ ऐसा अब कोई संग-ए-दर भी नहीं मो ’ तबर – भरोसेमंद , शजर – पेड़ , वुसअतें – फैलाव , फ़लक – आसमान , शमशीर – तलवार , समर – फल , तज़ाद-ए-हयात – जीवन का विरोधाभास , मुंतशर – बिखरा हुआ , संग-ए-दर – दहलीज़ का पत्थर