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हम कहाँ हैं हमें ख़बर भी नहीं

हम कहाँ हैं हमें ख़बर भी नहीं रास्ता कोई मो ’ तबर भी नहीं हम ने तामीर जो किया है जहाँ उसमें इक साया-ए-शजर भी नहीं सोच की वुसअतें फ़लक से परे पाँव बोझल हैं , बाल-ओ-पर भी नहीं सर पे शमशीर-ए-ख़ौफ़-ए-दुनिया भी और बग़ावत बिना बसर भी नहीं संग आते हैं किस उम्मीद पे अब पेड़ पर अब कोई समर भी नहीं ये तज़ाद-ए-हयात क्या कहिए रोए हैं और आँख तर भी नहीं हम नहीं ख़ुश ये इक हक़ीक़त है हम मगर इतने मुंतशर भी नहीं जिस पे “ मुमताज़ ” रख के सर रोएँ ऐसा अब कोई संग-ए-दर भी नहीं मो ’ तबर – भरोसेमंद , शजर – पेड़ , वुसअतें – फैलाव , फ़लक – आसमान , शमशीर – तलवार , समर – फल , तज़ाद-ए-हयात – जीवन का विरोधाभास , मुंतशर – बिखरा हुआ , संग-ए-दर – दहलीज़ का पत्थर 

जो था तेरे लिए बस उस सफ़र की याद आती है

जो था तेरे लिए बस उस सफ़र की याद आती है हमें हर लम्हा , हर पल अपने घर की याद आती है तसव्वर में जो यादों के सफ़र पर हम निकलते हैं शिकस्ता पाँव , ज़ख़्मी बाल-ओ-पर की याद आती हैं बिछड़ते वक़्त वो हर बार जो अशकों से धुलती है वो हसरत की नज़र , बस उस नज़र की याद आती है जब अपने रेशमी बिस्तर पे हम करवट बदलते हैं हमें उस ज़ख़्मी , बोसीदा खंडर की याद आती है वो जिसकी आँच से दिल का हर इक ज़र्रा सितारा था मोहब्बत के उसी ठंडे शरर की याद आती है जो वापस अर्श से मेरी दुआएँ लौट आती हैं जो था मेरी दुआ में उस असर की याद आती है जो हम यादों की टेढ़ी मेढ़ी गलियों से गुज़रते हैं हमें अक्सर तुम्हारी रहगुज़र की याद आती है हमें भी मिल गया कोई , तुम्हें भी मिल गया कोई जो तन्हा रह गया , बस उस शजर की याद आती है भटकते फिरते हैं “ मुमताज़ ” इन गलियों में हम अक्सर किधर का है सफ़र , जाने किधर की याद आती है तसव्वर – कल्पना , शिकस्ता – थका हुआ , बोसीदा – कमजोर , शरर – चिंगारी , शजर – पेड़ 

सांस्कृतिक प्रदूषण

    प्रदूषण और वो भी संस्कृति का ?     जी हाँ! और ये प्रदूषण आजकल हमारे समाज के चप्पे चप्पे मेन फैला दिखाई देता है , और ये सांस्कृतिक प्रदूषण ग्लोबलाइज़ेशन की बयार का साइड एफ़ेक्ट है। इस ग्लोबलाइज़ेशन की आँधी ने सारी दुनिया को एक बड़े से बाज़ार में तब्दील कर दिया है , और इस बाज़ार ने एक नए मुहावरे को जन्म दिया है ;     “ जो दिखता है , वो बिकता है ”     तो फिर इस बाज़ार में जिसको बिकना है , उसे कुछ दिखाना भी तो पड़ेगा , तो हर कोई ख़ुद को ग्लोबल दिखाने में लगा हुआ है। आज के दौर में बदन उघाडू कपड़े ग्लोबलाइज़ेशन के प्रतीक हैं और इनको धारण करने वाली औरतें डीवा हो गई हैं। देवी से डीवा तक के इस सफ़र में अगर कुछ खोया है तो वो हैं संस्कार। आज अगर कोई लड़की सलवार कमीज़ या साड़ी में मलबूस हो तो उसे तंज़ से बहन जी का ख़िताब दे दिया जाता है , गोया बहन का रिश्ता भी अब गाली हो गया है। तो इस ख़िताब से बचने के लिए लड़कियाँ डीवा बनने के लिए जी जान से तैयार हैं। वैसे ही जैसे देश के कई भागों में भैया का इस्तेमाल गाली के तौर पर किया जाता है। इसी प्रकार अँग्रेजी का इस्तेमाल आज ज़रूरी हो गया है। फॉरवर्ड दिखने के

सोच की परवाज़ ने हर ग़म को पस्पा कर दिया

सोच की परवाज़ ने हर ग़म को पस्पा कर दिया एक जुम्बिश ने क़लम की हश्र बरपा कर दिया रास जब आया न हमको ये उम्मीदों का सफ़र अपने ही हाथों से दिल को पारा पारा कर दिया ये नतीजा निकला उस शो ’ ला सिफ़त के क़ुर्ब का एक ही लग़्ज़िश ने इक मो ’ मिन को तरसा कर दिया अजनबी लगने लगे हम ख़ुद ही अपने आप को वहशत-ए-दिल ने हमारा हाल कैसा कर दिया अब न कोई ग़म , न कोई दर्द , आँखें बंद हैं एक ही हिचकी ने हर मुश्किल का चारा कर दिया मरना भी मुश्किल था उसकी आरज़ू जब तक रही उसकी बेपरवाई ने आसान जीना कर दिया दाल आटे की एवज़ हम चंद क़तरे बेच दें इस गरानी ने हमारा ख़ून सस्ता कर दिया लम्हे लम्हे का हमें देना पड़ा आख़िर हिसाब आज मेरी ज़िन्दगी ने फिर तक़ाज़ा कर दिया आज फिर “ मुमताज़ ” सर्फ़-ए-आरज़ू है ज़िन्दगी इक नज़र ने उसकी हर इक ज़ख़्म ताज़ा कर दिया परवाज़ – उड़ान , पस्पा – नीचा दिखाना , जुम्बिश – हिलना , हश्र – प्रलय , पारा पारा – टुकड़ा टुकड़ा , शो ’ ला सिफ़त – आग की जैसी तबीयत , क़ुर्ब – नजदीकी , लग़्ज़िश – लड़खड़ाना , मो ’ मिन – मुसलमान , तरसा – अग्नि पूजक , वहशत-ए-दिल –

अगर उससे मुलाक़ातों का यूँ ही सिलसिला होता

अगर उससे मुलाक़ातों का यूँ ही सिलसिला होता तो रफ़्ता रफ़्ता मेरे कर्ब से वो आशना होता हमारी दुश्मनी का तज़किरा गर जा ब जा होता सर-ए-बाज़ार अपना इश्क़ रुसवा हो गया होता हमारी बेनियाज़ी ने बचा ली लाज उल्फ़त की तेरी बेमेहरियों का राज़ वरना खुल गया होता न एहसास-ए-अलम होता न ग़म होता बिछड़ने का अगर अपनी वफ़ा पर हर्फ़ भी कुछ आ गया होता बिछड़ते वक़्त वो हसरत से मुड़ कर देखना उसका नज़र में काश वो मंज़र ही ज़िंदा रह गया होता जुनून-ए-शौक़ ने अक्सर कुरेदा है इन्हें वरना हर इक ज़ख़्म-ए-तमन्ना अब तलक तो भर गया होता सभी मजबूरियाँ “ मुमताज़ ” दिल में रह गईं आख़िर कभी तो कुछ सुना होता , कभी तो कुछ कहा होता 

मेरी बलन्दी ने मुझको कितना पामाल किया

मेरी बलन्दी ने मुझको कितना पामाल किया मुस्तक़बिल ने माज़ी से फिर एक सवाल किया कुछ तो क़िस्मत भी वाबस्ता थी राहों के साथ मंज़िल ने भी इस निस्बत का ख़ूब ख़याल किया उम्र पड़ी थी , और मुश्किल था जीना तेरे बाद इस तज़ाद ने कैसा ये हस्ती का हाल किया चेहरे की हर एक शिकन में नक़्श तेरे हुब का हम ने उम्र का इक इक लम्हा सर्फ़-ए-विसाल किया मेरे ज़िम्मे तेरे गुलिस्ताँ की थी निगहबानी जाँ दे कर “ मुमताज़ ” ने मुस्तक़बिल को हाल किया पामाल – पददलित , मुस्तक़बिल – भविष्य , माज़ी – अतीत , वाबस्ता – संबन्धित , निस्बत – संबंध , तज़ाद – विरोधाभास , हुब – प्यार , सर्फ़-ए-विसाल किया – मिलन में गुज़ारा , हाल – वर्तमान 

ये तूफ़ान-ए-हवादिस, बारिशें ये संगपारों की

ये तूफ़ान-ए-हवादिस , बारिशें ये संगपारों की भटकती रह गईं वादी में चीख़ें संगसारों की हवा में तैरते ये धूल के बादल भी शाहिद हैं यहीं से हो के गुज़री थी वो टुकड़ी शहसवारों की दुआएँ माँगता रहता है ये तपता हुआ सहरा नज़र इस सिम्त भी तो हो कभी इन अब्रपारों की सुना है बिक रही है आजकल उल्फ़त दुकानों में चलो देखें ज़रा , क़ीमत लगी क्या इफ़्तेख़ारों की ये कैसा जश्न है “ मुमताज़ ” इस लाशों की बस्ती में बहुत होती है आराइश जो इन उजड़े मज़ारों की तूफ़ान-ए-हवादिस – हादसों का तूफ़ान , संगपारों की – पत्थर के टुकड़ों की , संगसार – जिसको पत्थर से मारा जाए , शाहिद – गवाह , सहरा – रेगिस्तान , अब्रपारों की – बादल के टुकड़ों की , इफ़्तेख़ारों की – इज़्ज़तदार लोगों की , आराइश – सजावट , मज़ारों की – क़ब्रों की