सोच की परवाज़ ने हर ग़म को पस्पा कर दिया
सोच
की परवाज़ ने हर ग़म को पस्पा कर दिया
एक
जुम्बिश ने क़लम की हश्र बरपा कर दिया
रास
जब आया न हमको ये उम्मीदों का सफ़र
अपने
ही हाथों से दिल को पारा पारा कर दिया
ये
नतीजा निकला उस शो’ला सिफ़त के क़ुर्ब का
एक
ही लग़्ज़िश ने इक मो’मिन को तरसा कर दिया
अजनबी
लगने लगे हम ख़ुद ही अपने आप को
वहशत-ए-दिल
ने हमारा हाल कैसा कर दिया
अब
न कोई ग़म, न कोई दर्द, आँखें बंद हैं
एक
ही हिचकी ने हर मुश्किल का चारा कर दिया
मरना
भी मुश्किल था उसकी आरज़ू जब तक रही
उसकी
बेपरवाई ने आसान जीना कर दिया
दाल
आटे की एवज़ हम चंद क़तरे बेच दें
इस
गरानी ने हमारा ख़ून सस्ता कर दिया
लम्हे
लम्हे का हमें देना पड़ा आख़िर हिसाब
आज
मेरी ज़िन्दगी ने फिर तक़ाज़ा कर दिया
आज
फिर “मुमताज़” सर्फ़-ए-आरज़ू है ज़िन्दगी
इक
नज़र ने उसकी हर इक ज़ख़्म ताज़ा कर दिया
परवाज़
–
उड़ान, पस्पा – नीचा दिखाना, जुम्बिश – हिलना, हश्र – प्रलय, पारा पारा – टुकड़ा टुकड़ा, शो’ला सिफ़त – आग की जैसी तबीयत, क़ुर्ब – नजदीकी, लग़्ज़िश – लड़खड़ाना, मो’मिन – मुसलमान, तरसा – अग्नि पूजक, वहशत-ए-दिल – दिल की घबराहट, क़तरे
– बूँदें, गरानी – महँगाई, तक़ाज़ा – माँग, सर्फ़-ए-आरज़ू – इच्छाओं की भेंट
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