मेरी बलन्दी ने मुझको कितना पामाल किया
मेरी
बलन्दी ने मुझको कितना पामाल किया
मुस्तक़बिल
ने माज़ी से फिर एक सवाल किया
कुछ
तो क़िस्मत भी वाबस्ता थी राहों के साथ
मंज़िल
ने भी इस निस्बत का ख़ूब ख़याल किया
उम्र
पड़ी थी, और मुश्किल था जीना तेरे बाद
इस
तज़ाद ने कैसा ये हस्ती का हाल किया
चेहरे
की हर एक शिकन में नक़्श तेरे हुब का
हम
ने उम्र का इक इक लम्हा सर्फ़-ए-विसाल किया
मेरे
ज़िम्मे तेरे गुलिस्ताँ की थी निगहबानी
जाँ
दे कर “मुमताज़” ने मुस्तक़बिल को हाल किया
पामाल
–
पददलित, मुस्तक़बिल – भविष्य, माज़ी – अतीत, वाबस्ता – संबन्धित, निस्बत – संबंध, तज़ाद – विरोधाभास, हुब – प्यार, सर्फ़-ए-विसाल किया – मिलन
में गुज़ारा, हाल – वर्तमान
Comments
Post a Comment