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फ़ैसला लो, सुना दिया मैं ने

फ़ैसला लो , सुना दिया मैं ने नक़्श दिल से मिटा दिया मैं ने तुम को दरकार इक खिलौना था शीशा-ए-दिल थमा दिया मैं ने अपने हाथों की सब लकीरों को रफ़्ता रफ़्ता मिटा दिया मैं ने अपने पैकर से रंग चुन चुन कर सारा गुलशन सजा दिया मैं ने ज़िन्दगी , इतनी मेहरबाँ क्यूँ है तेरा हरजाना क्या दिया मैं ने वक़्त की नज़्र हो गईं यादें एक ख़त था , जला दिया मैं ने देखा “ मुमताज़ ” मैं ने मिट कर भी और फिर सब भुला दिया मैं ने नक़्श – निशान , रफ़्ता रफ़्ता – धीरे धीरे , पैकर – जिस्म , नज़्र – हवाले 

दिल के ज़ख़्मों के भी ग़ालीचे बिछाए जाएँ

दिल के ज़ख़्मों के भी ग़ालीचे बिछाए जाएँ ख़ैर मक़दम के नए तौर बनाए जाएँ अपनी ख़ुद्दारी को मंज़ूर नहीं है वरना हम जो चाहें तो सितारों पे बुलाए जाएँ अब अगर तर्क-ए-तअल्लुक़ हो तो फिर ऐसा हो दोस्ती के भी न आदाब निभाए जाएँ तल्ख़ सच्चाई से एहसास का दम घुटता है आओ ख़्वाबों से दर-ओ-बाम सजाए जाएँ हम मयस्सर हैं तुम्हें , मानो हमारा एहसाँ वरना हम दुनिया-ए-फ़ानी में न पाए जाएँ आप अब ऐसे भी ज़ख़्मों का मदावा ढूँढें मल के ज़ख़्मों पे नमक दर्द मिटाए जाएँ है सितम फ़र्ज़ जो तुम पर तो फिर इस तरह करो ख़ाक हो जाएँ हम ऐसे तो सताए जाएँ हम भी “ मुमताज़ ” कुछ ऐसे तो गए गुज़रे नहीं कि तेरे दर पे यूँ ही उम्र बिताए जाएँ ख़ैरमक़दम – स्वागत , तर्क-ए-तअल्लुक़ – रिश्ता तोड़ देना , आदाब – औपचारिकता , दर-ओ-बाम – दरवाज़े और छत , मयस्सर – हासिल , फ़ानी – नश्वर , मदावा – इलाज 

पारा पारा है वजूद और अना बार हुई - एक बहुत पुरानी ग़ज़ल

पारा पारा है वजूद और अना बार हुई हर तमन्ना मेरी रुसवा सर-ए-बाज़ार हुई आहू-ए-आरज़ू आवारा भटकती थी कभी अब तड़पती है किसी तीर का शिकार हुई बेख़ुदी नूर के सहरा में लिए जाती थी हर तरफ़ ग़म ही मिला आँख जो बेदार हुई जंग तक़दीर से थी और इधर मैं तन्हा टूट कर बिखरा वजूद ऐसी मेरी हार हुई संगरेज़ों की इबादत से भरम भी खोया और मैं अपनी ही नज़रों में गुनहगार हुई अना – अहं , बार – बोझ , आहू – हिरण , बेदार – जागना , संगरेज़ों – पत्थर के टुकड़ों 

तुझ से मिलना, तुझ को पाना दिल के लिए आज़ार हुआ

तुझ से मिलना , तुझ को पाना दिल के लिए आज़ार हुआ आईने से आँख मिलाना मेरे लिए दुश्वार हुआ दिल की बात समझ जाते हैं मेरा चेहरा देख के लोग गोया दिल के हर जज़्बे का ये चेहरा अख़बार हुआ ये दिल और निगाहें दोनों दुश्मन हैं इक दूजे के दिल ने बात छुपानी चाहिए , आँखों से इक़रार हुआ मेरे साक़ी की आँखों की एक शरारत , लाख सवाल मय बरसाई आँखों ने और रुसवा हर मयख़्वार हुआ लम्हा लम्हा सदियाँ गुज़रीं , सदियों सदियों इक आलम तेरे हिज्र का इक इक लम्हा कितना कमरफ़्तार हुआ तेरे दिल से मेरे दिल तक एक चराग़ाँ राह बनी राह के बीचों बीच में लेकिन इक लम्हा दीवार हुआ यादों की पुरवाई चली तो रूह के दर्द उभर आए दिल के छाले जब जब फूटे सारा तन बीमार हुआ कहीं शहर यादों के आए , मुस्तक़बिल के दश्त कहीं हर लहज़ा , हर क़दम सफ़र से दिल मेरा बेज़ार हुआ चेहरे पे सौ चेहरे लगाए घुटते रहे और हँसते रहे अब किस को बतलाएँ हम ये हम पे सितम सौ बार हुआ कुछ तो हमें “ मुमताज़ ” थी आदत तनहाई में जीने की कुछ था करम अहबाब का जो दिल दुनिया से बेज़ार हुआ मुस्तक़बिल – भविष्य , अहबाब – प्यारे

अँधेरों को शुआएँ नूर की पहनाई जाती हैं

अँधेरों को शुआएँ नूर की पहनाई जाती हैं अजब अंदाज़ से सब उलझनें सुलझाई जाती हैं मचलना , रूठना , नाराज़ हो जाना , सज़ा देना मेरे महबूब में क्या क्या अदाएँ पाई जाती हैं कभी ख़ंजर , कभी नश्तर , कभी अबरू की जुम्बिश से ग़रज़ किस किस तरह हम पर बलाएँ ढाई जाती हैं न जाने उज़्र किस किस तरह से फ़रमाए जाते हैं कहानी कैसी कैसी देखिये बतलाई जाती हैं कभी मेहर-ओ-मोहब्बत से कभी नामेहरबाँ हो कर हर इक सूरत हमारी हसरतें उकसाई जाती हैं नज़र धुंधली हुई जाती है क्यूँ दिल पाश होता है मुक़द्दर के उफ़क़ पर क्यूँ घटाएँ छाई जाती हैं कभी रंगीन जल्वों से , कभी “ मुमताज़ ” ख़्वाबों से तमन्नाएँ हर इक अंदाज़ से बहलाई जाती हैं शुआएँ – किरणें , नूर – उजाला , अबरू – भौंह , जुम्बिश – हिलना , उज़्र – बहाना , पाश – टुकड़ा , उफ़क़ – क्षितिज , मुमताज़ – अनोखा 

हाथों से हर इक दामन-ए-हिस छूट रहा है

हाथों से हर इक दामन-ए-हिस छूट रहा है अब रात के ख़्वाबों का फ़ुसूँ टूट रहा है हसरत से , तमन्ना से , मोहब्बत से , ख़ुदी से दिल कितने तरीक़ों से मुझे लूट रहा है फिर कर के यक़ीं देख लें उस शख़्स पे आओ अब तक तो हर इक उस का करम झूठ रहा है कैसा ये अजब दर्द है कैसी ये तपक है छाला सा कोई दिल में कहीं फूट रहा है अब किससे गिला कीजिये क़िस्मत के सितम का जब मेरा मुक़द्दर ही मुझे लूट रहा है सुबहें ही नहीं लातीं यहाँ अब तो उजाला रातों की सियाही का भरम टूट रहा है जिस दौलत-ए-जाँ पर था हमें इतना भरोसा “ मुमताज़ ” वो सरमाया-ए-जाँ झूठ रहा है हिस – एहसास , फ़ुसूँ – जादू , सरमाया – पूँजी

कभी वो ऑनलाइन हो के जल्वाख़ेज़ होते हैं

कभी वो ऑनलाइन हो के जल्वाख़ेज़ होते हैं कभी वो ऑफलाइन हो के शरअंगेज़ होते हैं कोई पूछे ज़रा उनसे कि आख़िर माजरा क्या है कि किसके क़त्ल की ख़ातिर ये ख़ंजर तेज़ होते हैं कभी नेज़े सी चितवन और कभी तलवार से तेवर कभी रुस्तम , कभी दारा , कभी चंगेज़ होते हैं कभी थप्पड़ , कभी चप्पल से ये ख़ातिर कराते हैं बड़े जज़्बात ये उल्फ़त के फ़ितनाख़ेज़ होते हैं ये मौक़ा ताड़ कर अपना हर इक मंतर चलाते हैं सभी अंदाज़ उनके मस्लेहत अंगेज़ होते हैं जिगर पर तो कभी “ मुमताज़ ” दिल पर वार होता है इशारे उनके कैसे कैसे दिल आवेज़ होते हैं