कभी वो ऑनलाइन हो के जल्वाख़ेज़ होते हैं
कभी
वो ऑनलाइन हो के जल्वाख़ेज़ होते हैं
कभी
वो ऑफलाइन हो के शरअंगेज़ होते हैं
कोई
पूछे ज़रा उनसे कि आख़िर माजरा क्या है
कि
किसके क़त्ल की ख़ातिर ये ख़ंजर तेज़ होते हैं
कभी
नेज़े सी चितवन और कभी तलवार से तेवर
कभी
रुस्तम, कभी दारा, कभी चंगेज़ होते हैं
कभी
थप्पड़, कभी चप्पल से ये ख़ातिर कराते हैं
बड़े
जज़्बात ये उल्फ़त के फ़ितनाख़ेज़ होते हैं
ये
मौक़ा ताड़ कर अपना हर इक मंतर चलाते हैं
सभी
अंदाज़ उनके मस्लेहत अंगेज़ होते हैं
जिगर
पर तो कभी “मुमताज़” दिल पर वार होता है
इशारे
उनके कैसे कैसे दिल आवेज़ होते हैं
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