हाथों से हर इक दामन-ए-हिस छूट रहा है
हाथों
से हर इक दामन-ए-हिस छूट रहा है
अब
रात के ख़्वाबों का फ़ुसूँ टूट रहा है
हसरत
से, तमन्ना से, मोहब्बत से, ख़ुदी
से
दिल
कितने तरीक़ों से मुझे लूट रहा है
फिर
कर के यक़ीं देख लें उस शख़्स पे आओ
अब
तक तो हर इक उस का करम झूठ रहा है
कैसा
ये अजब दर्द है कैसी ये तपक है
छाला
सा कोई दिल में कहीं फूट रहा है
अब
किससे गिला कीजिये क़िस्मत के सितम का
जब
मेरा मुक़द्दर ही मुझे लूट रहा है
सुबहें
ही नहीं लातीं यहाँ अब तो उजाला
रातों
की सियाही का भरम टूट रहा है
जिस
दौलत-ए-जाँ पर था हमें इतना भरोसा
“मुमताज़” वो सरमाया-ए-जाँ झूठ रहा है
हिस
–
एहसास, फ़ुसूँ – जादू, सरमाया – पूँजी
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