दिल के ज़ख़्मों के भी ग़ालीचे बिछाए जाएँ
दिल
के ज़ख़्मों के भी ग़ालीचे बिछाए जाएँ
ख़ैर
मक़दम के नए तौर बनाए जाएँ
अपनी
ख़ुद्दारी को मंज़ूर नहीं है वरना
हम
जो चाहें तो सितारों पे बुलाए जाएँ
अब
अगर तर्क-ए-तअल्लुक़ हो तो फिर ऐसा हो
दोस्ती
के भी न आदाब निभाए जाएँ
तल्ख़
सच्चाई से एहसास का दम घुटता है
आओ
ख़्वाबों से दर-ओ-बाम सजाए जाएँ
हम
मयस्सर हैं तुम्हें, मानो हमारा एहसाँ
वरना
हम दुनिया-ए-फ़ानी में न पाए जाएँ
आप
अब ऐसे भी ज़ख़्मों का मदावा ढूँढें
मल
के ज़ख़्मों पे नमक दर्द मिटाए जाएँ
है
सितम फ़र्ज़ जो तुम पर तो फिर इस तरह करो
ख़ाक
हो जाएँ हम ऐसे तो सताए जाएँ
हम
भी “मुमताज़” कुछ ऐसे तो गए गुज़रे नहीं
कि
तेरे दर पे यूँ ही उम्र बिताए जाएँ
ख़ैरमक़दम
–
स्वागत, तर्क-ए-तअल्लुक़ – रिश्ता तोड़
देना, आदाब – औपचारिकता, दर-ओ-बाम – दरवाज़े और छत, मयस्सर
– हासिल, फ़ानी –
नश्वर, मदावा – इलाज
Comments
Post a Comment