मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र थी जिसकी हर ख़ूबी
मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र थी जिसकी हर ख़ूबी तसव्वुर में बसा है आज तक वो जान -ए -महबूबी चलो अच्छा हुआ , इक आस की ज़ंजीर तो टूटी शिकस्ता नाव तूफाँ से लड़ी , साहिल प् आ डूबी जो निस्बत मौज से थी , साहिलों से भी वही रग़बत न हम को इल्म था , साहिल से मौजों की है मंसूबी फ़क़त इक लम्हा काफ़ी है मुक़द्दर के पलटने को कभी भटके सराबों में , कभी मौजों से जाँ ऊबी वो जो दिल का मकीं था , आजकल महलों में रहता है न रास आया उसे खंडर , तिजारत उस की थी ख़ूबी सफ़र सहरा ब सहरा था , तो फिर आसान था यारो समंदर के तलातुम से जो खेले , मौज ले डूबी करें अब तर्क ए उल्फ़त , ये मोहब्बत निभ न पाएगी न तुम में ज़ोर-ए-यज़दानी , न हम में सब्र-ए-अय्यूबी तेरे इस इल्तेफ़ात-ए-नारसा तक कौन पहुंचेगा न हम में हौसला इतना , न तेरा इश्क़ मरऊबी वो जल्वा , एक वो जल्वा , जो मस्ताना बना डाले निगाह-ए-दीद का मोहताज है वो जान-ए-महबूबी वही "मुमताज़" जिस ने तुम