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गीत - जब छोड़ दिया - दिल तोड़ दिया

जब छोड़ दिया दिल तोड़ दिया क्यूँ याद फिर आते हो जानाँ ग़म ढल भी गया दिल जल भी गया क्या आग बुझाते हो जानाँ इन टूटी बिखरी यादों को कब तक मैं समेटूँ , कहाँ रखूँ बेरंग अधूरे सपनों में किस ख़्वाहिश का अब रंग भरूँ जब रात गई हर बात गई क्या याद दिलाते हो जानाँ एहसास का शीशा टूट गया जज़्बात का दामन छूट गया हस्ती में वो तूफ़ान उठा मेरा दिल भी मुझ से रूठ गया सब छीन लिया बदनाम किया अब राज़ छुपाते हो जानाँ ? हसरत की सुनहरी वो दुनिया वीरान अँधेरी है जानाँ हर एक तमन्ना रहज़न है उम्मीद लुटेरी है जानाँ वो दर्द है अब दिल सर्द है अब क्यूँ दर्द बढ़ाते हो जानाँ

नज़्म - क़ाबिज़

ऐ मेरी रातों की तनहाई के ख़ामोश रफ़ीक़ ऐ मेरे दिल के मकीं ऐ मेरे ख़्वाबों के शफ़ीक़ मेरे जज़्बात में तूफ़ान उठाने वाले मेरे ख़्वाबों पे मेरे ज़हन पे छाने वाले तू ने अरमान जगाए मेरे मुर्दा दिल में छुप के रहने लगा पलकों के सुनहरे ज़िल में मेरे एहसास-ए-सितमगर को हवा दी तू ने मेरे सोए हुए नग़्मों को सदा दी तू ने एक चिंगारी जो अब राख में गुम होने को थी याद इक वक़्त की परतों में कहीं खोने को थी वही चिंगारी भड़क उट्ठी है शो ’ लों की तरह ज़ख़्म ताज़ा हुए गुलमोहर के फूलों की तरह मेरे महबूब मेरे दोस्त ऐ मेरे हमदम ऐ बुत-ए-संग मेरे ऐ मेरे पत्थर के सनम मेरे एहसास पे क़ाबिज़ है तेरे प्यार का ग़म मैं ने रक्खा है तेरी शोख़ अदाओं का भरम वर्ना ऐसी तो नहीं मुझ पे तेरी नज़र-ए-करम कि मेरे टूटे हुए दिल को क़रार आ जाए दिल-ए-ग़मगश्ता मेरा जिससे सुकूँ पा जाए 

हम को बादल के तअक़्क़ुब का सिला

हम को बादल के तअक़्क़ुब का सिला सिर्फ़ तश्नालबी-ओ-प्यास मिला बेहिसी का ये सिलसिला पैहम अब तवक़्क़ोअ हमें न कोई गिला राह आसाँ है पार क्यूँकर हो हादसा भेज , कोई ज़ख़्म खिला एक मुद्दत से ये घर तन्हा है ऐ हवा छेड़ न कर , दर न हिला हो उठे ज़िन्दा मनाज़िर सारे बाग़-ए-माज़ी में जब वो फूल खिला दर्द हद से गुज़र गया अब तो हो न कोई दवा तो ज़हर पिला और कुछ जब्र की रफ़्तार बढ़ा ज़िन्दगी का मुझे एहसास दिला कब तलक दश्त नवर्दी ऐ दिल घर को चल , दर की भी ज़ंजीर हिला तेरी बरबादी-ए-पैहम “ मुमताज़ ” है तेरी ख़ुशमज़ाक़ियों का सिला  तअक़्क़ुब – पीछा करना , तवक़्क़ोअ – उम्मीद , मनाज़िर – दृश्य , दश्त नवर्दी – जंगल में भटकना , बरबादी-ए-पैहम – लगातार बर्बाद होना 

मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया

मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया तार कर डाला अना को हिस को ज़ख़्मी कर दिया राहत-ओ-तस्कीन को अब छोड़ कर आगे बढ़ो मेरे मुस्तक़बिल ने ये फ़रमान जारी कर दिया क्या हो अब रद्द-ए-अमल , कुछ भी समझ आता नहीं अक़्ल पर वहशत ने इक सकता सा तारी कर दिया वो भी था ज़ख़्मी , लहू में तर बदन उसका भी था हम ने उसकी जीत का ऐलान फिर भी कर दिया धज्जियाँ अपनी अना की उसके दर पर छोड़ दीं क़र्ज़ ये उसकी अना पर हम ने बाक़ी कर दिया जो पस-ए-अल्फ़ाज़ था हम ने सुना वो भी मगर उसने जो हम से कहा हमने भी वो ही कर दिया हम मिटा आए हैं उसकी राह से हर इक निशाँ जो कि सोचा भी नहीं था , काम वो भी कर दिया क़त्ल कर डाला वफ़ा को तोड़ दी हर आरज़ू एक इस ज़िद ने हमें “ मुमताज़ ” वहशी कर दिया मुंतशर – बिखरा हुआ , तार कर डाला – फाड़ दिया , अना – अहं , हिस – भावना , तस्कीन – सुकून , मुस्तक़बिल – भविष्य , रद्द-ए-अमल – प्रतिक्रिया , सकता – अवाक होना , पस-ए-अल्फ़ाज़ – शब्दों के पीछे , वहशी – जंगली

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था मेरे सीने में शायद दिल नहीं था जिसे दे डालीं हम ने सारी साँसें हमारे प्यार के क़ाबिल नहीं था जो उस की याद आई तो ये जाना भुलाना भी उसे मुश्किल नहीं था मैं उस के बाद भी ज़िंदा हूँ , गोया वो मेरी रूह में दाख़िल नहीं था समंदर था , तलातुम था , भंवर थे कहीं भी कोई भी साहिल नहीं था हमें मालूम थे उस के इरादे किसी पहलू से दिल ग़ाफिल नहीं था जिसे हक दे दिया था फ़ैसले का वो मुजरिम था , कोई आदिल नहीं था हमें "मुमताज़" जो सरशार करता वो दिल को कर्ब भी हासिल नहीं था शिकस्ता- टूटा हुआ , बिस्मिल- घायल , गोया- जैसे कि , रूह में दाखिल- आत्मा में समाया हुआ , तलातुम- लहरों का उठना गिरना , साहिल- किनारा , आदिल- न्यायाधीश , सरशार- मदमस्त , कर्ब-दर्द 

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 4)

हर साल अजमेर में हुज़ूर ग़रीब नवाज़ के उर्स के मौक़े पर तमाम क़व्वाल वहाँ हाज़िरी देने जाते हैं । ऐसा माना जाता है के महफ़िले-समाअ में जिस को गाने का मौका मिल गया उस कि क़िस्मत खुल जाती है । नौशाद से अलग होने के बाद अज़ीज़ साहब काफी मायूस थे, और उसी मायूसी के आलम में वो हाज़िरी के लिए अजमेर पहुंचे । दिल में मायूसी भी थी, ग़ुस्सा भी और शिकायतें भी, और जो ग़ज़ल वो वहाँ गाने के लिए ले गए थे, उस के बोल थे, ख़्वाजा हिन्दल्वली हो निगाह ए करम, मेरा बिगड़ा मुक़द्दर संवर जाएगा  एक अदना भीकरी जो दहलीज़ पर आ के बैठा है उठ कर किधर जाएगा  महफ़िले-समाअ में उन्हों ने अपना नाम दर्ज करा दिया था, लेकिन गाने वालों की फ़ेहरिस्त काफी लंबी थी । सुबह के 4 बज चुके थे, और ऐसा लग रहा था के आज उन का नंबर नहीं आएगा । एक एक पल भारी था, लेकिन इंतज़ार के अलावा और कोई चारा भी नहीं था । तो इंतज़ार करते रहे, और दिल ही दिल में हुज़ूर के दरबार में फरियाद भी करते रहे कि क्या मेरा नंबर नहीं आएगा । अब ये कोई मौजिज़ा था, या करामत, या फिर उन कि क़िस्मत, उस दिन 4-5 बड़े बड़े क़व्वाल जिन का नाम उन के नाम के पहले दर्ज था, महफिल से ग़ैर हाज़िर थे । इस तरह उन

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 3)

अभी तक वो इस्माईल आज़ाद के साथ कोरस करते आए थे, लेकिन अब उन्हें अपनी पहचान चाहिए थी । इस के लिए उन्हों ने अपने एक दोस्त यूसुफ़ अंदाज़ के साथ मिल कर एक गेम प्लान बनाया । ये दोनों किसी भी बड़े क़व्वाल के प्रोग्राम में पहुँच जाते । वहाँ ये दोनों अलग हो जाते । अब यूसुफ़ अंदाज़ ऑर्गनाइज़र को ढूँढता, उस से मिलता, और बातों बातों में ही उसे बताता, "वो लड़का ( यानी अज़ीज़ ) बहुत अच्छा गाता है । आप एक बार उसे सुनिए, इन सब को भूल जाएंगे ।" इस बात से मुतास्सिर हो कर ऑर्गनाइज़र उन से एक दो कलाम सुनाने का इसरार करता । वो पहले झूठ मूठ कि ना नुकर करते, फिर तैयार हो जाते । एक दो कलाम पेश करते, जो रक़म मिलती उसे बटोरते और चलते बनते । उधर उन कि तूफ़ानी पर्फ़ार्मेन्स के बाद असल क़व्वाल का प्रोग्राम जाम न पाता । थोड़े दिनों में ये बात मशहूर हो गई कि अज़ीज़ क़व्वालों का प्रोग्राम ख़राब कर देता है ।  इधर उन्हों ने रिकॉर्डिंग के लिए जद्दो जहद शुरू कर दी थी । उस वक़्त कोलम्बिया के रेकॉर्ड्स चलन में थे । कोलम्बिया की मेन ब्रांच कोलकाता में थी, और यहाँ मुंबई में भी एक ब्रांच थी । मुंबई ब्रांच के कर्ता धर्ता क़ासिम साहब थे,