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मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया

मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया तार कर डाला अना को हिस को ज़ख़्मी कर दिया राहत-ओ-तस्कीन को अब छोड़ कर आगे बढ़ो मेरे मुस्तक़बिल ने ये फ़रमान जारी कर दिया क्या हो अब रद्द-ए-अमल , कुछ भी समझ आता नहीं अक़्ल पर वहशत ने इक सकता सा तारी कर दिया वो भी था ज़ख़्मी , लहू में तर बदन उसका भी था हम ने उसकी जीत का ऐलान फिर भी कर दिया धज्जियाँ अपनी अना की उसके दर पर छोड़ दीं क़र्ज़ ये उसकी अना पर हम ने बाक़ी कर दिया जो पस-ए-अल्फ़ाज़ था हम ने सुना वो भी मगर उसने जो हम से कहा हमने भी वो ही कर दिया हम मिटा आए हैं उसकी राह से हर इक निशाँ जो कि सोचा भी नहीं था , काम वो भी कर दिया क़त्ल कर डाला वफ़ा को तोड़ दी हर आरज़ू एक इस ज़िद ने हमें “ मुमताज़ ” वहशी कर दिया मुंतशर – बिखरा हुआ , तार कर डाला – फाड़ दिया , अना – अहं , हिस – भावना , तस्कीन – सुकून , मुस्तक़बिल – भविष्य , रद्द-ए-अमल – प्रतिक्रिया , सकता – अवाक होना , पस-ए-अल्फ़ाज़ – शब्दों के पीछे , वहशी – जंगली

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था मेरे सीने में शायद दिल नहीं था जिसे दे डालीं हम ने सारी साँसें हमारे प्यार के क़ाबिल नहीं था जो उस की याद आई तो ये जाना भुलाना भी उसे मुश्किल नहीं था मैं उस के बाद भी ज़िंदा हूँ , गोया वो मेरी रूह में दाख़िल नहीं था समंदर था , तलातुम था , भंवर थे कहीं भी कोई भी साहिल नहीं था हमें मालूम थे उस के इरादे किसी पहलू से दिल ग़ाफिल नहीं था जिसे हक दे दिया था फ़ैसले का वो मुजरिम था , कोई आदिल नहीं था हमें "मुमताज़" जो सरशार करता वो दिल को कर्ब भी हासिल नहीं था शिकस्ता- टूटा हुआ , बिस्मिल- घायल , गोया- जैसे कि , रूह में दाखिल- आत्मा में समाया हुआ , तलातुम- लहरों का उठना गिरना , साहिल- किनारा , आदिल- न्यायाधीश , सरशार- मदमस्त , कर्ब-दर्द 

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 4)

हर साल अजमेर में हुज़ूर ग़रीब नवाज़ के उर्स के मौक़े पर तमाम क़व्वाल वहाँ हाज़िरी देने जाते हैं । ऐसा माना जाता है के महफ़िले-समाअ में जिस को गाने का मौका मिल गया उस कि क़िस्मत खुल जाती है । नौशाद से अलग होने के बाद अज़ीज़ साहब काफी मायूस थे, और उसी मायूसी के आलम में वो हाज़िरी के लिए अजमेर पहुंचे । दिल में मायूसी भी थी, ग़ुस्सा भी और शिकायतें भी, और जो ग़ज़ल वो वहाँ गाने के लिए ले गए थे, उस के बोल थे, ख़्वाजा हिन्दल्वली हो निगाह ए करम, मेरा बिगड़ा मुक़द्दर संवर जाएगा  एक अदना भीकरी जो दहलीज़ पर आ के बैठा है उठ कर किधर जाएगा  महफ़िले-समाअ में उन्हों ने अपना नाम दर्ज करा दिया था, लेकिन गाने वालों की फ़ेहरिस्त काफी लंबी थी । सुबह के 4 बज चुके थे, और ऐसा लग रहा था के आज उन का नंबर नहीं आएगा । एक एक पल भारी था, लेकिन इंतज़ार के अलावा और कोई चारा भी नहीं था । तो इंतज़ार करते रहे, और दिल ही दिल में हुज़ूर के दरबार में फरियाद भी करते रहे कि क्या मेरा नंबर नहीं आएगा । अब ये कोई मौजिज़ा था, या करामत, या फिर उन कि क़िस्मत, उस दिन 4-5 बड़े बड़े क़व्वाल जिन का नाम उन के नाम के पहले दर्ज था, महफिल से ग़ैर हाज़िर थे । इस तरह उन

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 3)

अभी तक वो इस्माईल आज़ाद के साथ कोरस करते आए थे, लेकिन अब उन्हें अपनी पहचान चाहिए थी । इस के लिए उन्हों ने अपने एक दोस्त यूसुफ़ अंदाज़ के साथ मिल कर एक गेम प्लान बनाया । ये दोनों किसी भी बड़े क़व्वाल के प्रोग्राम में पहुँच जाते । वहाँ ये दोनों अलग हो जाते । अब यूसुफ़ अंदाज़ ऑर्गनाइज़र को ढूँढता, उस से मिलता, और बातों बातों में ही उसे बताता, "वो लड़का ( यानी अज़ीज़ ) बहुत अच्छा गाता है । आप एक बार उसे सुनिए, इन सब को भूल जाएंगे ।" इस बात से मुतास्सिर हो कर ऑर्गनाइज़र उन से एक दो कलाम सुनाने का इसरार करता । वो पहले झूठ मूठ कि ना नुकर करते, फिर तैयार हो जाते । एक दो कलाम पेश करते, जो रक़म मिलती उसे बटोरते और चलते बनते । उधर उन कि तूफ़ानी पर्फ़ार्मेन्स के बाद असल क़व्वाल का प्रोग्राम जाम न पाता । थोड़े दिनों में ये बात मशहूर हो गई कि अज़ीज़ क़व्वालों का प्रोग्राम ख़राब कर देता है ।  इधर उन्हों ने रिकॉर्डिंग के लिए जद्दो जहद शुरू कर दी थी । उस वक़्त कोलम्बिया के रेकॉर्ड्स चलन में थे । कोलम्बिया की मेन ब्रांच कोलकाता में थी, और यहाँ मुंबई में भी एक ब्रांच थी । मुंबई ब्रांच के कर्ता धर्ता क़ासिम साहब थे,

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 2)

उस वक़्त क़व्वालियों का दौर दौरा था । फ़िल्म "अलहिलाल" का गीत "हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने" हिट हो चुका था, और बच्चे बच्चे की ज़ुबान पर था । और इस के गायक इस्माईल आज़ाद की क़व्वाली की दुनिया में तूती बोलती थी । उन से मिलने और उन का प्रोग्राम बुक करने के लिए उन के घर के आगे लाइन लगी रहती थी । इत्तफ़ाक़ से इस्माईल आज़ाद उसी मोहल्ले में रहते थे, जिस में अज़ीज़ नाज़ाँ का घर था । कुछ घर वालों की प्रतिष्ठा, कुछ अपने टैलंट के बलबूते पर हुआ नाम, और कुछ इस लिए कि इस्माईल आज़ाद के छोटे भाई क़लंदर आज़ाद से उन कि दोस्ती थी, वजह कुछ भी रही हो, लेकिन इस्माईल आज़ाद के घर उनका आना जाना था । ये बात भी उन के घर वालों को बेहद नागवार थी । एक तो वो लोग सय्यद थे और इस्माईल आज़ाद क़ुरैशी, दूसरे उन का ख़ानदान बहुत मोअज़्ज़िज़ था, जबकि इस्माईल आज़ाद गाने बजाने से तअल्लुक़ रखते थे, जो उस ज़माने में यूँ भी भाँड-मीरासियों का काम समझा जाता था, अच्छे घरों के बच्चों को इस से दूर रहने की हिदायत दी जाती थी, फिर इस्लाम में तो इसे हराम ही क़रार दिया गया है । अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है के अज़ीज़ साहब को किन पाबंदि

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 1)

बेमिसाल शख़्सियत, नशे में डूबी आवाज़, लाजवाब अंदाज़ और बाग़ियाना तेवर, ग़ुस्सा ऐसा कि हमेशा नाक पर रखा रहे, अख़्लाक़ ऐसा कि दुश्मन भी मुरीद हो जाए और ख़ुलूस ऐसा कि बड़े बड़े इबादतगुज़ार सजदा रेज़ हो जाएँ । कुछ ऐसी ही magnetic शख़्सियत थी अज़ीज़ नाज़ाँ की । अज़ीज़ नाज़ाँ साहब मलबार (केरल) के एक सय्यद घराने से तअल्लुक़ रखते थे । उन के वालिद और वालिदा बड़े दीनदार, इबादत गुज़ार और परहेज़गार थे । एक भाई और तीन बहनें उन से बड़े थे और तीन भाई और एक बहन छोटे । उन का ख़ानदान काफी मोअज़्ज़िज़ माना जाता था । आज भी वो गली, जिस में उन का पुश्तैनी मकान है, उन के नाना मोहम्मद इब्राहीम सारंग के नाम से मंसूब है, और एम० ई० सारंग मार्ग के नाम से जानी जाती है । सुना तो ये भी है कि उन के ख़ानदान में उमर क़ाज़ी नाम के कोई वली भी हुए हैं, जिन का मज़ार आज भी केरल के शहर कालीकट में मौजूद है । अज़ीज़ नाज़ाँ अपनी तरह के अनोखे ही इंसान थे । बचपन में वो इतने शरीर थे कि उन की माँ को पल पल उन पर नज़र रखनी पड़ती थी । घर में मज़हबी माहौल होने के बावजूद उन को धार्मिक कर्म कांडों से कोई दिलचस्पी नहीं थी । शुरू में जुम्मा जुम्मा नमाज़ पढ़ भी लेते थे, लेकिन

महरूमी की धूप ढली, सर पर दौलत के साए हैं

महरूमी की धूप ढली , सर पर दौलत के साए हैं राहत का वो दौर गया बेचैनी के दिन आए हैं कितनी मुद्दत बाद मिली फ़ुरसत दो पल आराम को तो गिनते रहे कैसे कैसे मौक़े बस मुफ़्त गँवाए हैं वक़्त ने करवट क्या बदली चेहरे ही सारे बदल गए कल तक जो अपने से लगते हैं वो आज पराए हैं जिनको चलना हम ने सिखाया आगे कब के निकल गए थक कर राह में हम बैठे हैं , रात के गहरे साए हैं आज हिसाब-ए-रोज़-ओ-शब करने बैठे तो राज़ खुला सारी उम्र लुटाई है तो कुछ लम्हे हाथ आए हैं ज़िन्दगी हाथ से छूट के खोई , वक़्त फिसलता जाता है इस मंज़िल पर साथ में अपने सिर्फ़ क़ज़ा ही लाए हैं कोई तमन्ना , कोई जज़्बा , कोई ग़म “ मुमताज़ ” नहीं एक दिल-ए-बेहिस है , और हम और अजल के साए हैं रोज़-ओ-शब – रात और दिन , लम्हे – पल , क़ज़ा – मौत , अजल – मौत