Posts

कभी जो मुस्कराए होंठ तो नम हो गईं आँखें

कभी जो मुस्कराए होंठ तो नम हो गईं आँखें ना जाने कितने मंज़र हैं छुपाए आबगीं आँखें वो नज़रें छेड़ती हैं तार-ए-उल्फ़त बरबत-ए-जाँ पर झुकी जाती हैं बार-ए-हुस्न से ये शर्मगीं आँखें अजब आलम है , बिखरी जाती है हस्ती फ़ज़ाओं में कहीं अक़्ल और कहीं दिल है , कहीं हम हैं , कहीं आँखें गुज़र जाएगा दिन , पर रात की वुस ’ अत का क्या कीजे झपकतीं ही नहीं पल भर को जलती आतिशीं आँखें ये शग़्ल अहले ज़माना का गुज़रता है गराँ दिल पर कि जैसे जायज़ा लेती हों सब की नुक्ताचीं आँखें चलन सिखला गई हैं हम को भी दुनिया में जीने का जहान-ए-तुंदख़ू की फ़ितना परवर ऐब बीं आँखें नशे में झूमे कुल आलम , ये क़ुदरत लड़खड़ा जाए ज़रा “ मुमताज़ ” छलका दें जो मै वो आबगीं आँखें आबगीं – शीशे के जैसी चमकीली , बरबत – सरोद , शर्मगीं – शर्मीली , वुस ’ अत – फैलाव , आतिशीं – आग के जैसी , शग़्ल – शौक , गराँ – भारी , नुक्ताचीं – ऐब ढूँढने वाली , तुंदख़ू – बदमिज़ाज , फ़ितना परवर – फ़ितना फैलाने वाली , ऐब बीं – ऐब ढूँढने वाली 

ख़्वाहिश

दिल को छलती है ख़्वाहिश कोई प्यार है आज़माइश कोई हर क़दम दिल की साज़िश कोई दिल में जलती है आतिश कोई ऐ ख़ुदा ये चाहतें , ये हसरतें ये अजनबी सी राहतें ये ग़ुरूर का वो सुरूर है दिल सब से है बेगाना हर हिकायत से अंजान है जाने दिल क्यूँ परेशान है कुछ ना बोले ये नादान है फिर भी मेरी ये पहचान है ऐ ख़ुदा ये कोशिशें , ये काविशें ये सरसरी सी साज़िशें ना मुझे सता मेरे दिल बता क्यूँ हो गया दीवाना 

हर घड़ी पलकों में है बेख़्वाबियों का सिलसिला

हर घड़ी पलकों में है बेख़्वाबियों का सिलसिला सारा आलम सो रहा है , जागता है रास्ता एक वो छोटी सी लग़्ज़िश , ज़िन्दगी भर की सज़ा बन गई जाँ की मुसीबत एक छोटी सी ख़ता वापसी की राह कोई अब नज़र आती नहीं आँधियों ने तो मिटा डाले हैं सारे नक़्श-ए-पा रास क्या आएगा साक़ी मुझ को ये तेरा करम तश्नगी मेरी कहाँ , ये तेरा मैख़ाना कुजा रात की वीरान राहों में ये कैसा शोर है मुझ को पागल कर न दे दिल के धड़कने की सदा अजनबी एहसास ये कैसा है दिल के चार सू दर पे दस्तक दे रही है सरफिरी पागल हवा फिर वही बेहिस सी रातें , फिर वही वीरान दिन जाँ की गाहक बन गई है वहशतों की इंतेहा दे के हम को चंद साँसें सारी ख़ुशियाँ लूट लीं हम को अपनी ज़िन्दगी से है फ़क़त इतना गिला अब न कोई ग़म , न हसरत है , न कोई दर्द है रह गया “ मुमताज़ ” पैहम रतजगों का सिलसिला बेख़्वाबी – नींद न आना , लग़्ज़िश – लड़खड़ाना , नक़्श-ए-पा – पाँव के निशान , कुजा – कहाँ , चार सू – चारों तरफ , बेहिस – भावनाशून्य , वहशत – घबराहट , फ़क़त – सिर्फ़ , गिला – शिकायत , पैहम – लगातार 

मेरा सरमाया ही सारा ले गया मेरा जुनूँ

क्या  मोहब्बत , क्या  रफ़ाक़त , क्या  ख़ुशी , कैसा  सुकूँ मेरा  सरमाया  ही  सारा  ले  गया  मेरा  जुनूँ कितने  ही  रंगीन  साए  देखे  थे  कल  ख़्वाब  में ख़्वाब  की  ताबीर  क्या  दूं , कौन  सा  पैकर  लिखूं खाए  जाता  है  मुझे  मजबूरियों  का  ये  सफ़र कब  तलक  ख़ुद को  समेटूं , दर  ब दर  कब  तक  फिरूँ ये  तेरा  बेशक्ल  रुख़ , ऐ  मेरी  बद्ज़न  ज़िन्दगी तेरी  इस  बेचेहरगी  को  कौन  सा  अब  रंग  दूं लम्हा  दो  लम्हा  की  राहत  और  सदियों  की  चुभन ज़िन्दगी  की  तल्खियों में  ये  तमन्ना  का  फुसूँ तोड़  देता  है  मुसाफ़िर  को  सफ़र  का  इख्तेताम थक  चुकीं  बेकल  उम्मीदें , आरज़ू  है  सर निगूँ इम्तेहाँ दर  इम्तेहाँ  दर  इम्तेहाँ  दर  इम्तेहाँ कौन  सा  अब  इम्तेहाँ  बाक़ी  है , कब  तक  चुप  रहूँ जाग  उठीं  "मुमताज़" कितनी  ही  बरहना  हसरतें शब की  तीरा  धज्जियों  से  कितने  पैराहन  बुनूं पैकर-आकार , फुसूँ- जादू , इख्तेताम-समाप्ति , सर निगूँ- सर झुकाए हुए , बरहना- नग्न , तीरा-अँधेरी , पैराहन-ल

आओ कुछ देर रो लिया जाए

आओ कुछ देर रो लिया जाए दिल के दाग़ों को धो लिया जाए आज ज़हनों की इन ज़मीनों पर प्यार का बीज बो लिया जाए वो लहू आँख से जो टपका है रग-ए-जाँ में पिरो लिया जाए ज़ुल्म का हर नफ़स पे पहरा है अब तो ख़ामोश हो लिया जाए है थकन हद से ज़ियादा “ मुमताज़ ” हो जो फ़ुरसत तो सो लिया जाए 

ता उम्र सफ़र कर के ये हमने कमाया है

ता उम्र सफ़र कर के ये हमने कमाया है दो क़तरे हैं शबनम के , इक धूप का साया है उल्फ़त हो कि नफ़रत हो , तस्वीर के दो रुख़ हैं दम तोड़ती उल्फ़त ने नफ़रत को जगाया है जब दर्द की शिद्दत से दम घुटने लगा यारो तब जा के सिला हमने इस ज़ीस्त का पाया है गुज़रा है गरां हम पर एहबाब का हर एहसाँ इस ज़िंदगी में हम पर वो वक़्त भी आया है तनहाई का वो आलम आँसू भी नहीं साथी बेगानगी की हद है , हर दर्द पराया है पाएँ तो कहीं राहत , छूटें तो कशाकश से हस्ती में तलातुम ने इक क़हर उठाया है जागी जो कोई ख़्वाहिश तो मेरी तबाही का इस दिल ने हमें अक्सर एहसास दिलाया है परवाज़ की ख़्वाहिश थी और दिल में भी हिम्मत थी यूँ बारहा ख़ुद हमने पंखों को जलाया है अपना ही रहा चर्चा हर बज़्म में हर जानिब “ मुमताज़ ” तबाही का जब तज़किरा आया है ता उम्र – उम्र भर , क़तरे – बूँदें , सिला – बदला , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , गरां – भारी , एहबाब – प्यारे लोग , कशाकश – कश्मकश , तलातुम – तूफ़ान , तज़किरा – ज़िक्र 

हवा अब रुख़ बदलती है

गुलों ने रंग बदले हैं  बहार अब हाथ मलती है संभल जाओ चमन वालों , हवा अब रुख़ बदलती है जिगर का ख़ून होता है तो इक हसरत निकलती है तेरी ये मुंतज़र साअत बड़ी मुश्किल से टलती है तख़य्युल की जबीं पर जब तमन्ना रक़्स करती है तसव्वर की बलन्दी को नई परवाज़ मिलती है वो जिसकी रौशनी से दिल का हर ज़र्रा सितारा था जिगर में तेरी उल्फ़त की वो आतिश अब भी जलती है सुख़न की वादियों में फिर तेरा पैकर भटकता है सुनी है फिर तेरी आहट , तबीयत फिर संभलती है तसव्वर रोज़ दिल की उस गली की सैर करता है कि यादों के नशेमन की ये खिड़की रोज़ खुलती है हज़ारों ख़्वाब जाग उठते हैं इन वीरान आँखों में तेरी बाहों में जानाँ दिल की हर ख़्वाहिश पिघलती है जला कर ख़ाक करती जा रही है हर घड़ी मुझ को ये कैसी आग सी “ मुमताज़ ” इस सीने में जलती है