कभी जो मुस्कराए होंठ तो नम हो गईं आँखें
कभी जो मुस्कराए होंठ तो नम हो गईं आँखें ना जाने कितने मंज़र हैं छुपाए आबगीं आँखें वो नज़रें छेड़ती हैं तार-ए-उल्फ़त बरबत-ए-जाँ पर झुकी जाती हैं बार-ए-हुस्न से ये शर्मगीं आँखें अजब आलम है , बिखरी जाती है हस्ती फ़ज़ाओं में कहीं अक़्ल और कहीं दिल है , कहीं हम हैं , कहीं आँखें गुज़र जाएगा दिन , पर रात की वुस ’ अत का क्या कीजे झपकतीं ही नहीं पल भर को जलती आतिशीं आँखें ये शग़्ल अहले ज़माना का गुज़रता है गराँ दिल पर कि जैसे जायज़ा लेती हों सब की नुक्ताचीं आँखें चलन सिखला गई हैं हम को भी दुनिया में जीने का जहान-ए-तुंदख़ू की फ़ितना परवर ऐब बीं आँखें नशे में झूमे कुल आलम , ये क़ुदरत लड़खड़ा जाए ज़रा “ मुमताज़ ” छलका दें जो मै वो आबगीं आँखें आबगीं – शीशे के जैसी चमकीली , बरबत – सरोद , शर्मगीं – शर्मीली , वुस ’ अत – फैलाव , आतिशीं – आग के जैसी , शग़्ल – शौक , गराँ – भारी , नुक्ताचीं – ऐब ढूँढने वाली , तुंदख़ू – बदमिज़ाज , फ़ितना परवर – फ़ितना फैलाने वाली , ऐब बीं – ऐब ढूँढने वाली