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वुसअतों की ये तवालत, रास्ते हैं बेकराँ

वुसअतों की ये तवालत , रास्ते हैं बेकराँ ये सफ़र जारी रहा है कारवां दर कारवां लम्हा लम्हा वहशतें , हर गाम सौ नाकामियाँ रंग कितनी बार बदलेगा ये बेहिस आसमाँ ज़िन्दगी की कशमकश के दर्मियाँ उल्फ़त तेरी जलते सहरा की तपिश में जैसे कोई सायबाँ सारी हसरत , हर इरादा , हर जुनूँ , हर हौसला अब के तो सब कुछ बहा ले जाएंगी ये आंधियां याद की वीरान गलियों में हैं किस की आहटें कौन दाख़िल है हमारी खिल्वतों के दर्मियाँ आज मुद्दत बाद फिर उस राह से गुज़रे जहाँ चार सू बिखरे पड़े हैं आरज़ूओं के निशाँ क्यूँ ये शब् की सर्द तारीकी में हलचल मच गई किस की दर्दीली सदा से गूंजती हैं वादियाँ जाँ संभाली थी अभी "मुमताज़" मुश्किल से , कि फिर जाग उठी गुस्ताख़ हसरत , ज़िन्दगी है नौहा ख्वाँ वुसअतों कि ये तवालत-फैलाव का ये फैलाव , बेकराँ-अनंत , लम्हा- पल , वहशतें-बेचैनियाँ , गाम-क़दम , बेहिस-भावना रहित , सहरा-मरुस्थल , खिल्वतों के दरमियाँ-अकेलेपन में , दाख़िल-दख्ल देने वाला , सर्द तारीकी-ठंडा अँधेरा , नौहा ख्वाँ-दर्द भरे गीत गा रही है 

महकी हुई वो राहें वो रहबरी का आलम

महकी हुई वो राहें वो रहबरी का आलम अब ख़्वाब हो गया है वो आशिक़ी का आलम हर दर्द सो गया है हर टीस खो गई है धड़कन की ये उदासी ये बेहिसी का आलम तारीकियों में शब की तन्हाई का ये नौहा मुझको न मार डाले ये ख़ामुशी का आलम ये बेपनाह वहशत , हर लहज़ा बेक़रारी और दिल में हर घड़ी है इक बेरुख़ी का आलम मुद्दत हुई न लेकिन गुज़रा वो एक लम्हा पिनहाँ था एक पल में शायद सदी का आलम असरार खुल गया तो टूटा भरम का शीशा किस दर्जा बेरहम है ये आगही का आलम है लख़्त लख़्त हसरत , है साँस साँस बोझल “ मुमताज़ ” अब कहाँ वो दिल की ख़ुशी का आलम रहबरी – साथ चलना , बेहिसी – भावना शून्यता , तारीकियों में – अँधेरों में , नौहा – दुख का गीत , बेपनाह वहशत – बहुत जियादा घबराहट , लहज़ा – पल , पिनहाँ – छुपा हुआ , असरार – रहस्य , आगही – मालूम होना , लख़्त लख़्त – टुकड़ा टुकड़ा 

शायरी और फ़ेसबुक

     सुना है कि फ़ेसबुक ने सोशल नेटवर्किंग कि दुनिया में इंक़ेलाब बरपा कर दिया है। इंक़ेलाब भी ऐसा वैसा नहीं, बल्कि विश्वव्यापी है। यहाँ वहाँ, इधर उधर, स्कूलों में कॉलेजों में, घरों में दफ़्तरों में, कहाँ कहाँ नहीं है ये फ़ेसबुक। बस यूँ समझ लीजिये कि कण कण में से भगवान को निकाल कर आजकल फ़ेसबुक बस गया है। और जब से इसने भारत कि सरज़मीन पर हमला बोला है, यहाँ का हर ख़ास ओ आम फ़ेसबुकमय हो गया है।  एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़ न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा नवाज़       आज जहाँ देखो वहाँ फ़ेसबुक का राज है। बच्चे अपनी बुक को छोड़ कर फ़ेसबुक पर लगे पड़े हैं, गृहणियाँ घर बार छोड़ कर फ़ेसबुक के स्टेटस का अपने स्टेटस से मिलान करने में व्यस्त हैं, दफ़्तरों में साहब से ले कर चपरासी तक सभी फ़ेसबुक के मुरीद हैं। और तो और अब तो अपने पीएम तक टेक्नो सैवी हो गए हैं। तो जनाब हालत ये है कि उठते बैठते, खाते पीते, सोते जागते फ़ेसबुक के स्टेटस अपडेट किए जा रहे हैं। “आज कौन सी सब्ज़ी बनाई” और “छुट्टी मनाने किस आईलैंड पर गए” से ले कर “ओबामा ने कहाँ डांस किया” और “मिशेल ओबामा ने किस रंग कि ड्रेस पहनी थी” तक, हर जानकारी

रेज़ा रेज़ा ज़िन्दगी

एक भी खोने न पाया तेरा टुकड़ा ज़िन्दगी किस तरह हम ने संभाली रेज़ा रेज़ा ज़िन्दगी बेरुख़ी देखी ज़माने की तो अंदाज़ा हुआ कैसे पल भर में बदल लेती है लहजा ज़िंदगी हर क़दम इक आज़माइश , हर नफ़स इक इम्तेहाँ कुछ तो कह , क्या है भला तेरा इरादा ज़िन्दगी ये सफ़र की वुसअतें और तू अभी से थक गई चंद साँसें हैं अभी ऐ मेरी मुर्दा ज़िन्दगी ये तेरा बेशक्ल चेहरा , ये तेरा बदख़ू निज़ाम हम ने हर लहज़ा तेरा रक्खा है पर्दा ज़िन्दगी ये ग़म-ए-दौराँ की वुसअत , दर्द की बेताबियाँ है किसे फ़ुरसत सुने अब तेरा नौहा ज़िन्दगी मैं तुझे चाहूँ , न चाहूँ , करना तो होगा निबाह मेरी धड़कन पर भी है तेरा इजारा ज़िन्दगी कितने कम एहसास , कितनी वुसअतें तन्हाई में कितनी कम जीने की हिस , कितनी ज़ियादा ज़िन्दगी ये थकन , ये वहशतें , महरूमियों की ये जलन हम इस आतिश में जले शाना ब शाना ज़िन्दगी रेज़ा रेज़ा – टुकड़ा टुकड़ा , वुसअतें – फैलाव , बदख़ू – बुरी आदत वाला , निज़ाम – व्यवस्था , लहज़ा – पल , नौहा – दुख का गीत , इजारा – हुकूमत , हिस – महसूस करने की क्षमता , शाना ब शाना – कंधे से कंधा

अज़ाब ए यास से वहशत की शामें भीग जाती हैं

अज़ाब ए यास से वहशत की शामें भीग जाती हैं तो बेहिस आरज़ू की सारी परतें भीग जाती हैं क़हत जब से पड़ा दिल में जमाल ए रू ए जानाँ का नई पहचान से यादों की किरचें भीग जाती हैं तसव्वर जब तड़पता है , तो हसरत जलने लगती है जो नालां ज़हन होता है , तो यादें भीग जाती हैं वो रक्सां हर्फ़ ओझल होने लगते हैं किताबों से हमारे आंसुओं से सब किताबें भीग जाती हैं हर इक नग़मा मुसलसल चीख़ में तब्दील होता है जो दर्द ओ यास से दिल की रबाबें भीग जाती हैं नशा कुछ और बढ़ता है , मज़ा कुछ और आता है जुनूँ के रस में जब ज़िद की शराबें भीग जाती हैं नई राहों से वाबस्ता हूँ , क्यूँ फिर ऐसा होता है उसे जब सोचती हूँ , अब भी आँखें भीग जाती हैं शिकस्ता ज़िन्दगी "मुमताज़" हिम्मत तोड़ देती है तसलसुल की थकन से जब ये साँसें भीग जाती हैं    अज़ाब ए यास-दुःख की यातना , वहशत-बेचैनी , बेहिस-बेएहसास , क़हत-अकाल , जमाल ए रू ए जानाँ-प्रिय के चेहरे की सुन्दरता , नालां ज़हन होता है-मस्तिष्क रोता है , रक्सां हर्फ़-नाचते हुए अक्षर , मुसलसल-लगातार , रबाबें-एक वाद्य यंत्र , वाबस्ता-सम्बंधित ,

हर तरफ़ शोर है, हर तरफ़ है फ़ुगां

हर तरफ़ शोर है , हर तरफ़ है फ़ुगां हर बशर आजकल महव ए ग़म है यहाँ बेहिसी नाखुदाओं की बरबाद कुन ये तलातुम , ये टूटी हुई कश्तियाँ लुट रहा है चमन , जल रहे हैं समन दूर से देखता है खड़ा बाग़बाँ तूल सहरा का , और आबले पाँव के दूर तक कोई साया , न है सायबाँ इक तमाशा है "मुमताज़" हर ज़िन्दगी और तमाशाई अखबार की सुर्ख़ियाँ फ़ुगां-रुदन , बशर- इंसान , महव ए ग़म-ग़म में डूबा हुआ , बेहिसी-एहसास न होना , नाखुदाओं की- नाविकों की , बरबाद कुन-बरबाद करने वाली , तलातुम- तूफ़ान , कश्तियाँ-नावें , समन-एक प्रकार का पेड़ , तूल-लम्बाई , सहरा-मरुस्थल , आबले-छाले  

लग गई किस की नज़र अपने वतन को यारो

कर दिया किस ने जुदा गंग-ओ-जमन को यारो लग गई किस की नज़र अपने वतन को यारो हर तरफ़ शोर है , हर सिम्त है नफ़रत का धुआँ ज़िन्दगी रोती है इस दौर-ए-फ़ितन को यारो मुंतशिर जिस्म के टुकड़े , वो क़यामत का समाँ और लाशें जो तरसती हैं कफ़न को यारो जुस्तजू में वो भटकती हुई बूढ़ी आँखें कौन अब देगा जवाब इनकी थकन को यारो बुलबुलें जलती हैं , गुल जलते हैं , जलते हैं शजर आग कैसी ये लगी अपने वतन को यारो कोई किरदार न इफ़कार , तसव्वर है न ख़्वाब दीमकें चाट गईं फ़िक्र-ओ-सुख़न को यारो दीन-ओ-ईमान से भटके हुए “ मुमताज़ ” ये लोग भूल जो बैठे हैं माँ-बाप-बहन को यारो