महकी हुई वो राहें वो रहबरी का आलम
महकी
हुई वो राहें वो रहबरी का आलम
अब
ख़्वाब हो गया है वो आशिक़ी का आलम
हर
दर्द सो गया है हर टीस खो गई है
धड़कन
की ये उदासी ये बेहिसी का आलम
तारीकियों
में शब की तन्हाई का ये नौहा
मुझको
न मार डाले ये ख़ामुशी का आलम
ये
बेपनाह वहशत, हर लहज़ा बेक़रारी
और
दिल में हर घड़ी है इक बेरुख़ी का आलम
मुद्दत
हुई न लेकिन गुज़रा वो एक लम्हा
पिनहाँ
था एक पल में शायद सदी का आलम
असरार
खुल गया तो टूटा भरम का शीशा
किस
दर्जा बेरहम है ये आगही का आलम
है
लख़्त लख़्त हसरत, है साँस साँस बोझल
“मुमताज़” अब कहाँ वो दिल की ख़ुशी का आलम
रहबरी
–
साथ चलना, बेहिसी – भावना शून्यता, तारीकियों में – अँधेरों में,
नौहा – दुख का गीत, बेपनाह वहशत – बहुत जियादा घबराहट, लहज़ा – पल, पिनहाँ – छुपा हुआ, असरार – रहस्य, आगही – मालूम होना, लख़्त लख़्त – टुकड़ा टुकड़ा
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