अज़ाब ए यास से वहशत की शामें भीग जाती हैं
अज़ाब ए यास से वहशत की शामें भीग जाती हैं
तो बेहिस आरज़ू की सारी परतें भीग जाती हैं
क़हत जब से पड़ा दिल में जमाल ए रू ए जानाँ का
नई पहचान से यादों की किरचें भीग जाती हैं
तसव्वर जब तड़पता है, तो हसरत जलने लगती है
जो नालां ज़हन होता है, तो यादें भीग जाती
हैं
वो रक्सां हर्फ़ ओझल होने लगते हैं किताबों से
हमारे आंसुओं से सब किताबें भीग जाती हैं
हर इक नग़मा मुसलसल चीख़ में तब्दील होता है
जो दर्द ओ यास से दिल की रबाबें भीग जाती हैं
नशा कुछ और बढ़ता है, मज़ा कुछ और आता है
जुनूँ के रस में जब ज़िद की शराबें भीग जाती हैं
नई राहों से वाबस्ता हूँ, क्यूँ फिर ऐसा होता
है
उसे जब सोचती हूँ, अब भी आँखें भीग जाती हैं
शिकस्ता ज़िन्दगी "मुमताज़" हिम्मत तोड़ देती है
तसलसुल की थकन से जब ये साँसें भीग जाती हैं
अज़ाब ए यास-दुःख की यातना, वहशत-बेचैनी, बेहिस-बेएहसास, क़हत-अकाल, जमाल ए रू ए जानाँ-प्रिय
के चेहरे की सुन्दरता, नालां ज़हन होता है-मस्तिष्क रोता है, रक्सां हर्फ़-नाचते
हुए अक्षर, मुसलसल-लगातार, रबाबें-एक वाद्य
यंत्र, वाबस्ता-सम्बंधित, शिकस्ता-थकी हुई, तसलसुल-निरंतरता
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