शायरी और फ़ेसबुक

     सुना है कि फ़ेसबुक ने सोशल नेटवर्किंग कि दुनिया में इंक़ेलाब बरपा कर दिया है। इंक़ेलाब भी ऐसा वैसा नहीं, बल्कि विश्वव्यापी है। यहाँ वहाँ, इधर उधर, स्कूलों में कॉलेजों में, घरों में दफ़्तरों में, कहाँ कहाँ नहीं है ये फ़ेसबुक। बस यूँ समझ लीजिये कि कण कण में से भगवान को निकाल कर आजकल फ़ेसबुक बस गया है। और जब से इसने भारत कि सरज़मीन पर हमला बोला है, यहाँ का हर ख़ास ओ आम फ़ेसबुकमय हो गया है। 
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा नवाज़ 
     आज जहाँ देखो वहाँ फ़ेसबुक का राज है। बच्चे अपनी बुक को छोड़ कर फ़ेसबुक पर लगे पड़े हैं, गृहणियाँ घर बार छोड़ कर फ़ेसबुक के स्टेटस का अपने स्टेटस से मिलान करने में व्यस्त हैं, दफ़्तरों में साहब से ले कर चपरासी तक सभी फ़ेसबुक के मुरीद हैं। और तो और अब तो अपने पीएम तक टेक्नो सैवी हो गए हैं। तो जनाब हालत ये है कि उठते बैठते, खाते पीते, सोते जागते फ़ेसबुक के स्टेटस अपडेट किए जा रहे हैं। “आज कौन सी सब्ज़ी बनाई” और “छुट्टी मनाने किस आईलैंड पर गए” से ले कर “ओबामा ने कहाँ डांस किया” और “मिशेल ओबामा ने किस रंग कि ड्रेस पहनी थी” तक, हर जानकारी फ़ेसबुक पर उपलब्ध है। जिसका फ़ेसबुक पर अकाउंट नहीं, गोया वो इंसान नहीं कोई अजूबा है। लोगों में स्टेटस अपडेट करने और लाइक करने की होड़ सी लगी है। कोई बीमार हो, मर गया हो, दंगे हुए हों, गृहयुद्ध छिड़ गया हो, सब पर लाइक। हद तो ये हुई कि अभी कल ही यह खबर आई कि एक नौजवान का हाथ शेर महाराज ले गए, उस व्यक्ति की बाद में मौत हो गई। इस खबर को 390 लोगों ने लाइक किया। अब उन्होंने शेर को लाइक किया या उस शख्स की मौत को, ये तो वही जानें।
     शादी-ब्याह, तीज-त्योहार, मरना-जीना, फ़ेसबुक हर मरहले पर आपके साथ है। आजकल तरह तरह के डे मनाने का फैशन ज़ोरों पर है। मदर्स डे, फादर्स डे, डाटर्स डे, सिस्टर्स डे, फ्रेंडशिप डे, वैलंटाइन्स डे,  चॉकलेट डे, न जाने कौन कौन से डे। कई बार तो बधाई संदेश मिलने पर पता चलता है कि आज फलाँ डे है। फ़ेसबुक पर ऐसे ऐसे डे मनाए जाते हैं कि जिन का कभी ज़िक्र तक नहीं सुना, और क्यों न मनाए जाएँ, 
मुफ़्त हाथ आए तो भंगार का माल अच्छा है 
और यहाँ हर चीज़ मुफ़्त है। त्योहारों पर मिठाई का फोटो डाल दिया, चॉकलेट डे पर चॉकलेट का फोटो सब को भेज दिया, बर्थड़े पर भव्य केक के फोटो के साथ गुलाबों भरे गुलदस्ते का फोटो भेज दिया, बस मन गया डे। अगर दावत करने का मन है तो छप्पन प्रकार के व्यंजनों की तस्वीरें अपलोड कर दीं। दावत की दावत हो गई, खर्चे का खर्चा बच गया। यही नहीं, फ़ेसबुक पर इश्क़ करना भी बहुत सस्ता पड़ता है। अब महबूबा के लिए महंगे गिफ्ट नहीं, बस गिफ्ट के  फोटो भेजने पड़ते हैं। न गर्ल्स कॉलेजों के चक्कर काटने की ज़रूरत, न लड़की का पीछा करने की। फ़ेसबुक पर हर रंग, नस्ल, देश और क़ौम की कामिनियाँ मौजूद हैं, जिन पर बिना पिटे ट्राई मारी जा सकती है। 
     यूँ तो राष्ट्रीय से ले कर वैश्विक तक, समाज से ले कर सियासत तक, संस्कृति से ले कर साहित्य तक, ऐसा कौन सा क्षेत्र है जो फेसबुकियाया न गया हो, और अदब की दुनिया पर तो फ़ेसबुक की विशेष कृपादृष्टि रही है। कहानी, कविताएं, लेख, इस से कुछ भी नहीं छूटा, लेकिन शायरी के क्षेत्र में इस का योगदान अतुलनीय है।   
     वैसे तो पूरे इंटरनेट पर ही शायरी का बोलबाला है, जहाँ मीर से ले कर ग़ालिब तक के अशआर की लुटिया बेहतरीन ढंग से डुबोई जाती है। अच्छे से अछे शेर का तिया पाँचा कर के उसे बेवज़न बनाने में इंटरनेट के महारथियों को महारत हासिल है। तक़रीबन हर शायर की शायरी इंटरनेट पर मौजूद है लेकिन ग़ालिब और फ़राज़ पर इंटरनेटियों की खास इनायत है। ग़ालिब का शेर देखिये-
शौक़ हर रंग रक़ीब ए सर ओ सामाँ निकला 
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला 
बू ए गुल, नाला ए दिल, दूद ए चराग़ ए महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला वो परेशाँ निकला 
अब इस शेर का इंटेरनेटी वर्शन मुलाहिज़ा हो, 
शोक हर रंग रफी के सरों सामान निकाला 
कैसे तस्वीर ने पर्दे में भी यूरिया निकाला 
बुए गुल, नाले में दिल, दूध करा था मैं चिल
जो तेरी बजम से निकाला तो परेशान निकाला 
पता नहीं मुल्क ए अदम में इंटरनेट की सुविधा है या नहीं, अगर होगी तो चचा ग़ालिब अपने अशआर पर होता हुआ यह ज़ुल्म देख कर यक़ीनन दोबारा मर गए होंगे। 
     इंटरनेट पर तरह तरह की वर्गीकृत शायरी उपलब्ध है, जैसे मोहब्बत की शायरी, रोमांटिक शायरी, सैड शायरी वग़ैरह। मोहब्बत की शायरी और रोमांटिक शायरी में फ़र्क़? अजी बड़ा फ़र्क़ है, ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है, मोहब्बत वह जो ग़रीब करे, रोमांस वह जो अमीर करे, मोहब्बत वह जो काले लोग करें, रोमांस वह जो गोरे लोग करें, मोहब्बत वह जो आम आदमी करे, रोमांस वह जो शशि सर, दिग्गी राजा और एन डी भैया करें। 
     शायरी के वर्गीकरण के भी अपने ही फ़ायदे हैं। मजनुओं को इस से बड़ी सुविधा हो जाती है। न किताबें खँगालने का झंझट, न शेर याद करने का टंटा, बस शेर छाँटा और एसएमएस में चढ़ा कर दन्न से भेज मारा। पहले फुलगेंदवा मारने का फैशन था, आजकल एसएमएस मारने का ट्रेंड है। फुलगेंदवा किसी के बग़ीचे से चुराना पड़ता था, एसएमएस रेडीमेड मिल जाते हैं। कभी कभी तो वे आपके पास ख़ुद ही आ जाते हैं, आपको सिर्फ़ फॉरवर्ड करना पड़ता है। आजकल इश्क़ बहुत फॉरवर्ड हो गया है। 
     हाँ, तो पूरे इंटरनेट पर ही शायरी का बोलबाला है, लेकिन इस मामले में फेसबुक ने सब साइटों से बाज़ी मार ली है। इस ने शायरी को नया जीवनदान दिया है। अपनी इन निस्स्वार्थ सेवाओं के लिए श्री मार्क ज़करबर्ग बधाई के हकदार हैं। 
     फेसबुक ने पिछले कुछ सालों में ऐसे ऐसे शायरों को जन्म दिया है, जिन्हों ने शायरी की टाँग भुने हुए मुर्ग़े की तरह सिर्फ़ तोडी ही नहीं, बल्कि चबा भी डाली है। आज भारत का हर तीसरा व्यक्ति शायर है। कभी कभी मुझे लगता है कि इस देश में आदमी कम, शायर ज़्यादा रहते हैं। बचपन में स्कूल में मुझे पढ़ाया गया था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। अपने गुरुजनों पर अथाह विश्वास के चलते मैं ने इस बात पर आँख मूँद कर विश्वास कर लिया। यहाँ तक कि जब देश के किसान दनादन आत्महत्या करने लगे तब भी मेरा यह विश्वास नहीं टूटा। वह तो फेसबुक पर आने के बाद यह राज़ खुला कि दर हक़ीक़त भारत तो एक शायरी प्रधान देश है। इस राज़ का पर्दा फ़ाश होने के बाद से अपने गुरुजनों पर मेरा जो अथाह विश्वास था वह बुरी तरह डगमगा गया है। मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई हूँ कि मेरी बाक़ी शिक्षा भी इसी तरह झूठी तो नहीं। अब जबकि मेरे ज्ञान चक्षु खुल चुके हैं तो सोचती हूँ कि पढ़ाई के नाम पर ऐसी मिथ्या और भ्रम पूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने के लिए मैं शिक्षा विभाग को कोर्ट में घसीट लूँ और इतने वर्षों तक मुझे अंधेरे में रखने के लिए उन से हरजाने की माँग करूँ     
     भारत की धरती बड़ी शायरखेज़ है। यहाँ हर प्रकार के शायर पैदा होते हैं, कुछ बड़े, कुछ छोटे, कुछ खरे, कुछ खोटे, कुछ रिसालों के, कुछ मुशायरों के, कुछ शायर, कुछ मुतशायर। कोई कोई शायर टीचर होते हैं, लेकिन ज़्यादातर फटीचर होते हैं। आजकल देश के कोने कोने में शायर पाए जाते हैं। इन के अशआर मौलिक हों या न हों, नाम ज़रूर मौलिक होते हैं। अक्सर उन के तख़ल्लुस और उन के शहर के नाम के मेल से बड़े दिलचस्प नाम बनते हैं, मुलाहिजा कीजिये, धुलै के अज़ीज़ धुलवी, हलोल के महशर हलोलवी, टांडा के कमतर टांडवी, पूसा के असग़र पूसई, खोर के आदम खोरवी, झज्जर के बोहरान झज्जरवी, झुझुकलान के तिकड़म झुझुकलानवी, मंडोला के मस्त मंडोलवी। दक्षिण भारतीय शायरों के नाम तो और भी युनीक होते हैं, मसलन, मेट्टुपलायम के रशीद मेट्टुपलायमी, नन्नीलम के रहज़न नन्नीलमवी, मुत्तुपेठ के बेबस मुत्तूपेठवी, डिंडीगुल के चोर डिंडीगुलवी, बमपर्दा की हया बमपर्दवी, मलुमीचमपट्टी के हैरत मलुमीचमपट्टवी, चिपुरुपल्ली के ज़लील चिपुरुपल्लवी। इंसान इन की शायरी बाद में समझे, पहले तो नाम समझना पड़े।   
     भारत में हर साल शायरों की अथाह पैदावार को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब भारत का हर नागरिक शायर होगा और श्रोता नाम के लुप्तप्राय जीव को विदेशों से इम्पोर्ट कर के अजायबघर में नुमाइश के लिए रखना पड़ेगा। डिमांड और सप्लाई में आए इस अंतर के चलते श्रोताओं का भाव बढ़ जाएगा, जिस कि वजह से उन कि तस्करी शुरू हो जाएगी। शायरी संवाद का माध्यम बन जाएगी जिस से देश का वातावरण अहिंसक हो जाएगा। लड़ाई झगड़ों में गाली गलौज शायरी में होगी, दंगे फ़सादों में घर नहीं लोगों कि रचनाएँ जलाई जाएँगी, व्यापारी पैसों के बदले शायरी का लेन देन करेंगे, संसद में प्रश्नकाल के दौरान सदस्य हंगामा करने कि बजाए बैतबाज़ी करेंगे और अंडर वर्ल्ड डॉन लोगों से हफ्ता मांगने कि बजाए शायरी सुनने कि डिमांड करेंगे। उन के शेर ऐसे होंगे-
सटके हुए भेजे से तुझे देता हूँ मौक़ा
जल्दी से मुझे दे दे तू दो चार सौ खोखा 
वैसे तो संसद में शेर ओ शायरी कि शुरुआत हो भी चुकी है, ये बात और है कि अभी बयानों के बीच बीच कहीं कहीं शेर पढ़ लिए जाते हैं, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब शेरों के बीच बीच कहीं कहीं बयान पढे जाएंगे। फिल्में शायरों और शायरी पर बनेंगी और उन के गीत कुछ ऐसे होंगे-
मेरे देश कि धरती शायर उगले 
उगले ग़ज़लें नज़्में 
मेरे देश की धरती 
     पुराने ज़माने में शायर बनना बड़ा दुश्वार काम हुआ करता था। बरसों मश्क़ करो, उस्ताद ढूंढो, उन के नाज़ नखरे उठाओ और उस्ताद जी भाव ही न दें, उन्हें मुंह तक न लगाएँ। उन के दरवाजे के चक्कर काटते काटते बेचारा वुड बी शायर अधमरा हो जाता, तब कहीं जा कर उस कि तालिम शुरू होती। अरूज़ के चक्कर में बेचारा घनचक्कर बन कर रह जाता। इस चक्कर में उस का आधा दिमाग़ शहीद हो जाता और वो हाफ माइंड रेह जाता। तब कहीं जा कर वह अपनी रचनाएँ संपादकों कि खिदमत में भेजना शुरू करता कि कोई ग़ज़ल छापे तो उस की कुर्बानियों की क़ीमत वसूल हो। इसी चक्कर में वो अपने खून पसीने की कमाई पत्रिकाओं पर लुटाता रहता कि किसी में तो उस कि रचना छपी हो, लेकिन नहीं, निर्दयी संपादक उस के अरमानों कि यह रचना रूपी लाश बड़ी बेरहमी से रद्दी की टोकरी नुमा क़ब्र में दफ़ना देते और उसे रसीद तक न देते। जो ज़रा रहमदिल होते वे उसे खेद सहित शायर के मुंह पर भेज मारते। बेचारा शायर मुंह टापता रह जाता।
     जो शायर जुगाड़ू होते वे मुशायरों के लिए ट्राई मारते। मुशायरा वह सभा है जहां शायर लोग लिफाफे में बंद काग़जी माया के मोह में कविता पाठ करते हैं और अदब की ख़िदमत करने का दावा करते हैं। मुशायरे कई प्रकार के होते हैं, जैसे अज़ीम मुशायरा, कुलहिंद मुशायरा, आलमी मुशायरा आदि। अज़ीम मुशायरा वह मुशायरा है जहां आयोजक तरह तरह के हथकंडे अपना कर ख़ूब सारी भीड़ जमा कर लेते हैं। जबकि कुलहिंद मुशायरा वह मुशायरा है जहां एक दो नामी शायरों के साथ साथ देश के कोने कोने से जुगाड़ू स्ट्रगलर शायरों का रेवड़ हांक कर लाया जाता है। आलमी मुशायरा ज़रा मुख्तलिफ़ होता है, यहाँ विभिन्न देशों के जैसे, चीनी जापानी, फ्रेंच, हिंदुस्तानी आदि शायर जमा हो कर विभिन्न भाषाओं में कलाम पढ़ते हैं, और कोई कुछ नहीं समझता। बस यूं समझ लीजिये कि जहां लिफाफों में बंद नोटों के लालच में चंद शायर जमा हों और गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाएँ वह मुशायरा कहलाता है। अब उसे आप अज़ीम मुशायरा कह लें, कुलहिंद मुशायरा कह लें या आलमी मुशायरा, पर सच तो यह है कि जिस मुशायरे का लिफाफा जितना भारी होगा वह मुशायरा उतना ही अज़ीम कहलाएगा। 
     मुशायरों में पढ़ने के कई फ़ायदे हैं। एक तो यह कि वहाँ फोकट में अपने शेर ज़ाया नहीं करने पड़ते, दूसरे, वहाँ दाद भी फौरन मिल जाती है, तीसरे वहाँ शोहरत का इमकान भी पत्रिकाओं में छापने से ज़्यादा होता है और चौथी और सब से बड़ी बात यह है कि यहाँ आप को शायरी आना बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है। मुशायरों में घुसपैठ करना भी कोई कम पेचीदा काम नहीं है। इस के लिए आप को शायरी आए या न आए, जुगाड़ शास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान अनिवार्य है ताकि आयोजकों कि कृपादृष्टि आप पर बनी रहे, क्यों कि उस के बिना मुशायरों का मंच आपको खट्टे अंगूरों के जैसा नज़र आएगा। इसके अलावा गायकी में महारत, नाजो अदा और नौटंकी भी इस कला के अनिवार्य अंग हैं। लेकिन यहाँ भी हूटिंग कि तलवार शायरों के सरों पर हमेशा लटकती रहती है। 

     लेकिन जब से फेसबुक वजूद में आया है, संपादक नामक गुंडे की दादागिरी, आयोजक नामक एजेंट की सियासत और हूटिंग रूपी तलवार के खतरे से शायरों को हमेशा के लिए निजात मिल गई है। अब वे शान से अपनी रचनाएँ सीधा फेसबुक के स्टेटस पर दाल देते हैं और लगे हाथों दाद और लाइक्स भी वसूल कर लेते हैं। हींग लगे न फिटकरी रंग भी आए चोखा। पाठक भी ख़ुश कि पढ्न नहीं पड़ा, लाइक कर के जान छूटी, शायर भी ख़ुश कि लाइक्स का अंबार लब गया। यहाँ लाइक ही इंसान की कामयाबी का पैमाना है, तो लाइक की संख्या बढ़ाने के हथकंडे भी बेशुमार हैं। जैसे दोस्तों को टैग कर दिया। टैग की हुई चीजों को नज़रअंदाज़ करना फेसबुक के आदाब के मुताबिक ग़ैर अखलाकी अमल है। इसलिए अगर दोस्तों को ज़रा भी शर्म होगी तो लाइक तो कर ही देंगे। कुछ मुखलिस टाइप के लोग कमेंट के तौर पर वाह वाह भी कर देंगे। अगर फिर भी कोई बेशर्म दोस्त तवज्जोह न दे तो मैसेज कर कर के उस की नाक में दम कर देना भी आज़माया हुआ फेसबुकिया हथकंडा है। बच कर जाएगा कहाँ बेचारा। आखिरकार लाइक कर के अपना पिंड छुड़ाएगा। 
     फेसबुक पर शायर बनना इस दुनिया का सब से आसान काम है। आपको शायरी आए या न आए, वज़न, बहर, रदीफ़, क़ाफ़िया से खुदा वास्ते का बैर हो, भाषा और व्याकरण किस चिड़िया के नाम हैं यह भी न मालूम हो तो भी कोई बात नहीं। यहाँ न शायरी चाहिए, न तरन्नुम, न नाज़ ओ अदा, न एक्टिंग, यहाँ तक कि आप को शायरी लफ़्ज़ के हिज्जे तक न पता हों तो भी चलेगा। फेसबुक पर शायर बनने के रास्ते आपके लिए हमेशा खुले हैं। बस आप ज़रा ख़ुशशक्ल हों यही बहुत है, और न भी हों तो शक्ल भी यहाँ उधार मिल जाती है। कैसे? मैं आप को बताती हूँ। 
     सब से पहले तो जनाब आप एक आईडी बना डालें। उस का कोई भी फ़ैन्सी सा यूज़र नेम रखना न भूलें। ध्यान रहे, नाम जितना विचित्र होगा शायरी कि दुकान उतनी ही ज़्यादा चलेगी। अगर हिट होने का ज़्यादा ही शौक़ है और दाद पाए बिना आपका खाना हज़म नहीं होता तो स्त्रियोचित नाम रख लें। अब एक हसीन सी तस्वीर प्रोफ़ाइल पिक्चर के स्थान पर चस्पाँ कर दें। आप की तस्वीर हसीन है तो ठीक, वरना गूगल पर हसीन तस्वीरें थोक के भाव में उपलब्ध हैं, वहाँ से उड़ा लें। बेहतर हो कि यह हसीन तस्वीर किसी हसीना की हो। बस हो गया काम। अब शायरीनुमा चीज़ें अपने स्टेटस पर डालते रहिए। उदाहरण के तौर पर यह “शेर” प्रस्तुत है-
मुझे ही नहीं रहा शौके मोहब्बत का ऐ दोस्त 
वरना तेरे शहर की लड़कियां इशारे अब भी करती हैं 
दूसरा उदाहरण मुलाहिज़ा कीजिये-
ख़ुदा बचाए तुम्हें इन हसीनों से 
नाज़नीनों से 
महजबीनों से 
लेकिन इन हसीनों को कौन बचाए 
तुम जैसे कमीनों से 
कोशिश करते रहें और आत्मविश्वास बनाए रखें। करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। झोलछाप डॉक्टर भी जब झोला उठा कर मरीज़ का सत्यानाश करने निकल पड़ते हैं तो धीरे धीरे इतना तो जान ही लेते हैं कि जिस्म में आँतें कहाँ हैं और कलेजा कहाँ। और शायरी आए या न आए, कम से कम शायर बेचारा किसी कि ज़िंदगी से तो नहीं खेलता। इसलिए पूरे जी जान से अपने काम में जुटे रहें। एक न एक दिन आपको शायरी आ ही जाएगी। और न भी आई तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा। मज़े से दूसरों के अशआर टीप कर काम चलाये। 
     चोरो करने के लिए भी बड़ा टैलंट चाहिए। किसी शेर में ज़रा सा हेर फेर किया, और ताज़ा शेर तैयार। फ़राज़ का एक शेर है-
बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से 
जो हो सके तो चला आ उसी कि ख़ातिर तू 
उड़ाने वाले ने इसे यूं उड़ाया-
बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से 
जो हो सके तो लौट आ किसी बहाने से 
अगर आप में यह टैलंट नहीं है और आप ज्यों का त्यों अशआर कॉपी कर के अपने स्टेटस पर पेस्ट कर लें तो कोई आप का क्या बिगाड़ लेगा। 
     तो बस फिर लीजिये, बन गए आप शायर। न संपादक कि गुंडई का डर, न पत्रिकाओं पर पैसे लुटाने की फिक्र, न पाठकों के रिएक्शन का टेंशन, न मुशायरों के कन्वेनरों की मक्खनबाज़ी करने का झंझट। अब भला इस से सस्ता, सुंदर और टिकाऊ उपाय और कहाँ मिलेगा शायर बनने का। 
     शायरी का बुखार आज हर तरफ फैला हुआ है और अब तो इसने महामारी का रूप ले लिया है। जिसे देखो वही इस बीमारी से ग्रस्त है, और पाठक है कि बुरी तरह त्रस्त है। इस बीमारी के लक्षण भी इसी कि तरह विलक्षण हैं। यह दुनिया का अकेला ऐसा बुखार है कि जो इस की चपेट में आया वह आनंद विभोर हो जाता है। जबकि उस के आस पास के लोग भयाक्रांत रहने लगते हैं। यही वजह है कि कोई डॉक्टर इस बीमारी का इलाज करने के लिए आगे नहीं आता, बल्कि मरीज़ को दूर से ही देख कर भाग खड़ा होता है। हाँ, अगर डॉक्टर भी इसी बीमारी का शिकार हो तो और बात है। ऐसे अझेल मरीज़ एक दूसरे को अपनी रचनाएँ सुनते सुनाते हुए खुशी खुशी एक दूसरे को झेलते हैं। 
     इस बीमारी का दूसरा लक्षण यह है कि मरीज़ हर हाल में खुद को शायर समझता है, और चाहता है कि दूसरे भी उसे शायर समझें। ऐसे मरीजों के स्वास्थ्य लाभ के लिए उनका लाइक्स से परहेज़ ज़रूरी है। लेकिन भूल से भी उसे सच्चाई से अवगत कराने कि कोशिश न करें, वरना वह ग़ुस्से में आ कर हिंसक हो सकता है। ऐसी हालत में सावधानी न बरतने पर वह अपने नाखूनों से आप के चेहरे पर एक नई ग़ज़ल लिख सकता है। 
     पुराने वक़्तों के शायर बड़े निकम्मे होते थे। इस प्रजाति के शायर अब भी अल्प मात्रा में पाए जाते हैं, जो एक एक शेर पर घंटों माथा पच्ची कर के उस का बहर और वज़न दुरुस्त करने में वक़्त बर्बाद करते रहते हैं। ऐसी स्लो मोशन प्रक्रियाएँ आजकल कि तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में वर्जित हैं, अतः आज के स्मार्ट शायरों ने इस समस्या से बचने के कई नायाब उपाय ढूंढ लिए हैं। मसलन बहरो वज़न 
को गोली मारो, ख़याल उम्दा होना चाहिए। इस के अलावा आज़ाद नज़्म है, आज़ाद ग़ज़ल है। अलबत्ता अगर ग़ज़ल है तो वह आज़ाद कैसे है और अगर आज़ाद है तो वह ग़ज़ल कैसे है, यह अपने आप में शोध का विषय है। यही नहीं, एक और चीज़ भी ईजाद कि गई है, जिसे नस्री नज़्म (गद्य काव्य) के नाम से जाना जाता है। यहाँ मेरी मोटी अक़ल दो बातें समझने से क़ासिर है। पहली तो यह कि अगर यह नज़्म है तो नस्र कैसे है, और अगर नस्र है तो नज़्म कैसे है, दूसरी यह कि जब कोई निज़ाम ही न रहा तो इसे नज़्म क्यों कहते हैं। नस्री नज़्म के लेखकों को भी बहरहाल शायर कहा जाता है। 
     वैसे तो इस क़िस्म के शायर उस्तादी शागिर्दी के भौतिक माया मोह से परे हैं, लेकिन ग़ैरत ही है, मान लो ललकार ही दे और वह किसी उस्ताद से इसलाह कराने जा पहुंचा, तो शेरों का वज़न दुरुस्त करने में बेचारे उस्ताद का वज़न घट कर आधा रह जाएगा और उस कि ज़िंदगी कि बहर छोटी हो जाएगी, इसलिए आजकल उस्ताद भी ऐसे खतरनाक कामों में हाथ नहीं डालते। 
     कुछ कलमवीरों ने एक और तरीका ईजाद कर लिया है। किसी फटीचर से उस्ताद को हरे हरे नोट दिखाए और रेडीमेड शायरी खरीद ली। इन का भी काम चल गया, उनका भी काम चल गया। इन्हें शायर होने का गौरव मिल गया, उन्हें दो चार दिन के लिए फ़ाक़ों से निजात मिल गई। इसी बहाने लगे हाथों समाज सेवा भी हो गई। कोई कोई उस्ताद कस्टम मेड शायरी भी मुहैया करा देते हैं, लेकिन यहाँ खतरा यह है कि पता चला उस्ताद महोदय ने दस लोगों को एक ही ग़ज़ल टिका दी, और इत्तेफाक से दसों ने एक ही मुशायरे में उसे पढ़ दिया तो ऐसे में अंडों और टमाटरों की बारिश हो सकती है। इस लिए यह सलाह दी जाती है कि इस तबक़े के शायर छतरी हमेशा साथ रखें, क्या पता, कब ज़रूरत पेश आ जाए। 
     शायर अनंत शायर कथा अनंता। सारी ज़मीन को काग़ज़ कर लिया जाए और सारे समंदरों कि सियाही बना ली जाए तब भी पूरी न हो। लेकिन आजकल शायरी के प्रति बढ़ते रुझान को देखते हुए शायरों के सूचनार्थ यह जानकारी लिख दी है, ताकि सनद रहे और वक़्त ए ज़रूरत काम आए। 
     
     

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