लग गई किस की नज़र अपने वतन को यारो
कर दिया किस ने जुदा गंग-ओ-जमन को यारो
लग गई किस की नज़र अपने वतन को यारो
हर तरफ़ शोर है, हर सिम्त है नफ़रत का धुआँ
ज़िन्दगी रोती है इस दौर-ए-फ़ितन को यारो
मुंतशिर जिस्म के टुकड़े, वो क़यामत का समाँ
और लाशें जो तरसती हैं कफ़न को यारो
जुस्तजू में वो भटकती हुई बूढ़ी आँखें
कौन अब देगा जवाब इनकी थकन को यारो
बुलबुलें जलती हैं, गुल जलते हैं, जलते हैं शजर
आग कैसी ये लगी अपने वतन को यारो
कोई किरदार न इफ़कार, तसव्वर है न ख़्वाब
दीमकें चाट गईं फ़िक्र-ओ-सुख़न को यारो
दीन-ओ-ईमान से भटके हुए “मुमताज़” ये लोग
भूल जो बैठे हैं माँ-बाप-बहन को यारो
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