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रोज़ एहसास ये अंगारों में ढलता क्यूँ है

रोज़ एहसास ये अंगारों में ढलता क्यूँ है ये अँधेरा शब ए तन्हाई का जलता क्यूँ है अश्क शबनम के यही करते हैं हर रोज़ सवाल गोद में शब की अँधेरा ये पिघलता क्यूँ है कोख में क़त्ल किये जाने की क्यूँ दी है सज़ा बाग़बाँ अपनी ही कलियों को कुचलता क्यूँ है मस्लेहत क़ैद रखेगी मुझे आख़िर कब तक ये जुनूँ रूप बदल कर मुझे छलता क्यूँ है ग़म के तेज़ाब से एहसास की सींची हैं जड़ें फिर तमन्ना का शजर आज भी फलता क्यूँ है क़ैद कर लेती है क्यूँ नूर को तारीकी - ए - शब बूढ़े सूरज को उफ़क़ रोज़ निगलता क्यूँ है ज़ेर - ओ - बम गर्दिश - ए - हालात के क्या हैं आख़िर आसमाँ रोज़ नए रंग बदलता क्यूँ है क़तरे सीमाब के "मुमताज़" न हाथ आएँगे दिल अबस नारसा हसरत प् मचलता क्यूँ है शजर – पेड़ , तारीकी-ए-शब – रात का अँधेरा , उफ़क़ – क्षितिज , ज़ेर - ओ - बम – ऊँच नीच , सीमाब – पारा , अबस – बेकार , नारसा – जिस की पहुँच न हो roz ehsaas ye angaaroN meN dhalta kyuN hai ye andhera shab e tanhaai ka jalta kyuN hai ashk shabnam ke yahi karte haiN har roz sawaal god meN shab ki andhera ye...

एक ग़ज़ल केजरीवाल की नज़्र

थोडा ज़ाहिर किया हक़ , थोडा छुपाया तुम ने इक बंदरिया की तरह सच को नचाया तुम ने मुल्क को यूँ भी लगा है ये सियासत का जुज़ाम हो गया जिस्म लहू ऐसे खुजाया तुम ने खुल के अफ़सोस करो , ग़ैर प् इलज़ाम धरो जल रहा था जो चमन , क्यूँ न बुझाया तुम ने वो भी बतलाओ ज़रा जनता को ऐ सच के अमीन पद प् रहते हुए जो कुछ भी है खाया तुम ने इन की दुम थाम , किया पार सियासत का सिरात और अब कर दिया अन्ना को पराया तुम ने रह गईं अपना सा मुंह ले के किरन बेदी भी अपने रस्ते से उन्हें ख़ूब हटाया तुम ने वोट भी चंद मिलें तुम को तो कुछ बात भी है शोर तो खूब बहरहाल मचाया तुम ने     जुज़ाम - कोढ़,    सिरात - वैतरिणी 

फ़र्श था मख़मल का, लेकिन तीलियाँ फ़ौलाद की

फ़र्श था मख़मल का , लेकिन तीलियाँ फ़ौलाद की हो न पाएँ हम रिहा , कोशिश रही सय्याद की मरहबा ज़िन्दादिली , सद आफ़रीं फ़न्न-ए-हयात हम जहाँ पहुँचे , नई दुनिया वहाँ आबाद की दाम में आया जुनूँ , अब हसरतों की ख़ैर हो दिल ने फिर तस्कीन की सूरत कोई ईजाद की ऐ ख़ुदाई के तलबगारो , रहे ये भी ख़याल हो गई मिस्मार पल भर में इरम शद्दाद की इश्क़ की पुख़्ता इमारत किस क़दर कमज़ोर थी ज़लज़ला आया कि ईंटें हिल गईं बुनियाद की जब अना क़त्ल-ए-तरब की ज़िद पे आमादा हुई हसरतों ने बख़्त के दरबार में फ़रियाद की कर लिया फ़ाक़ा , प फैलाया नहीं दस्त ए सवाल हर तरह हम ने भी रक्खी है वज़अ अजदाद की लूट लेती हैं नशिस्तें यूँ भी कुछ मुतशाइरात " दाद लोगों की , गला अपना , ग़ज़ल उस्ताद की" हम जूनून ए ख़ाम ले कर दर ब दर फिरते रहे किस तरह "मुमताज़" हम ने ज़िन्दगी बर्बाद की फ़ौलाद – स्टील , सय्याद – बहेलिया , मरहबा –सद आफ़रीं - तारीफ़ी जुमला , फ़न्न - ए - हयात – जीवन जीने की कला , दाम – जाल , जुनूँ – सनक , तस्कीन – राहत , ईजाद – खोज , मिस्मार – ढह जाना , इरम – शद्दाद की जन्नत...

इक यही आख़िरी हक़ीक़त है

इक यही आख़िरी हक़ीक़त है तेरी उल्फ़त मेरी इबादत है जान-ए-जाँ ये भी इक हक़ीक़त है मुझ को तेरी बहुत ज़रुरत है लूट का फ़न तवील क़ामत है आजकल आदमी की क़िल्लत है फ़ौत होने लगी है तारीकी एक उम्मीद की विलादत है मुझ को रखता है इक तज़बज़ुब में ये मेरे क़ल्ब की शरारत है छोटी छोटी हज़ार ख़ुशियाँ हैं इश्क़ में भी बड़ी नफ़ासत है खो गया जब क़रार तो जाना बेक़रारी में कितनी लज़्ज़त है जीतना , मुस्कराना , ख़ुश रहना ऐश में भी बड़ी मशक़्क़त है अब हवस का ही खेल है सारा " अब मोहब्बत कहाँ मोहब्बत है" ज़िन्दगी जिस को हम समझते हैं सिर्फ़ "मुमताज़" एक साअत है    ik yahi aakhiri haqeeqat hai teri ulfat meri ibaadat hai jaan e jaaN ye bhi ik haqeeqat hai mujh ko teri bahot zaroorat hai loot ka fan taweel qaamat hai aaj kal aadmi ki qillat hai faut hone lagi hai taariki ek ummeed ki wilaadat hai mujh ko rakhta hai ik tazabzub meN ye mere qalb ki sharaarat hai chhoti chhoti hazaar khushiyaaN haiN ishq meN bhi badi nafaasat hai ...

समझता है मेरी हर इक नज़र, हर ज़ाविया मेरा

समझता है मेरी हर इक नज़र , हर ज़ाविया मेरा न जाने कौन है वो अजनबी ,    वो रहनुमा मेरा सिमट   आता है हुस्न - ए - दोजहाँ   मेरे सरापा में जो बन जाती हैं उस की दो निगाहें आईना मेरा मुकफ़्फ़ल कर दिया था हर निशाँ दिल में , मगर फिर भी ज़माने पर अयाँ हो ही गया है अलमिया मेरा रखा था दुखती रग पर हाथ अनजाने में यादों ने ज़रा से लम्स ने फिर फोड़ डाला आबला मेरा शिकायत मैं करूँ भी तो अब इस से फ़ायदा क्या है हँसी में वो उड़ाता है , हमेशा , हर गिला मेरा जूनून-ए-सरफ़रोशी   की सनाख्वानी भी होनी है अभी तो ज़िन्दगानी पढ़ रही है मर्सिया मेरा मिटाता है , मिटा कर फिर कई आकार देता है मुक़द्दर रफ़्ता रफ़्ता ले रहा है जायज़ा मेरा ज़रा ठहरो , समेटूँ तो , मैं अपने मुन्तशिर टुकड़े हिला कर रख गया है ज़हन-ओ-दिल को सानेहा मेरा ये जंग ए हस्त-ओ-बूदी है , यहाँ हर कोई तनहा है मुझे सर करना है "मुमताज़" ये है मारका मेरा ज़ाविया – पहलू , सरापा – सर से पाँव तक , मुकफ़्फ़ल – ताला बंद , अयाँ – ज़ाहिर , अलमिया – दुख भरा वाक़या , लम्स – स्पर्श , आबला – छाला , गिला –...

वो निस्बतें, वो रग़बतें, वो क़ुरबतें कहाँ गईं

वो निस्बतें , वो रग़बतें ,        वो क़ुरबतें कहाँ गईं दिलों   में   जो   मक़ीम   थीं ,    हरारतें   कहाँ   गईं तराश डाला मसलेहत ने ज़हन - ओ - दिल का फ़लसफा बदलती   थीं   जो   पल ब पल तबीअतें ,   कहाँ गईं जदीदियत   की   जंग में   वो भोलापन भी खो गया वो बचपना ,   वो शोख़ी ,       वो शरारतें कहाँ गईं फ़ना हुईं वो यारियाँ ,     वो रस्म ओ राह अब कहाँ वो   सीधी सादी   ज़िन्दगी ,   वो   फ़ुरसतें   कहाँ गईं शिकस्त   खा   के   आज   क्यूँ   बिखर गए हैं हौसले उम्मीदें   फ़ौत   क्यूँ   हुईं ,   वो   हसरतें   कहाँ    गईं बदलता   वक़्त   खेल   का   मिज़ाज   भी बदल गया वो     प्यार   में     घुली   हुई      रक़ाबतें   कहाँ   गईं है   कौन   अब   ज...