ख़ंजर हैं तअस्सुब के, और खून की होली है
ख़ंजर हैं तअस्सुब के , और खून की होली है हम ने ये विरासत अब औलाद को सौंपी है तारीक बयाबाँ में ये कैसी तजल्ली है ये दिल की सियाही में क्या शय है जो जलती है जो हारे वो पा जाए , ये इश्क़ की बाज़ी है जब ख़ुद को गंवाया है , तब जंग ये जीती है है दूर अभी साहिल , तय हो तो सफ़र कैसे रूठा हुआ मांझी है , टूटी हुई कश्ती है बेताब जुनूँ का ये अदना सा करिश्मा है देहलीज़ पे हसरत की तक़दीर सवाली है देखा जो ज़रा मुड़ के , पथरा गई बीनाई माज़ी ...