ये तमाशा भी किसी दिन सर-ए-बाज़ार करूँ
ये तमाशा भी किसी दिन सर-ए-बाज़ार करूँ तेरी कमज़र्फ़ वफाओं को संगसार करूँ ऐ मेरे ज़हन पे छाए हुए रंगीन ख़याल सामने भी कभी आ जा कि तुझे प्यार करूँ बेहिसी वो कि तमन्नाओं का दम घुटता है अब किसी तौर तो इस ज़हन को बेदार करूँ चलना चाहूँ तो कोई सिम्त , कोई राह नहीं इस भरे ज़ीस्त के दलदल को कैसे पार करूँ अब घुटा जाता है दम दायरा-ए-हस्ती में हद से वहशत जो बढ़े , इसको भी अब तार करूँ इशरत-ए-रफ़्ता के रेशम का ये उलझा हुआ जाल इस को सुलझाने चलूँ , ख़ुद को गिरफ़्तार करूँ अब न वो यार , न एहबाब , न याद-ए-माज़ी ज़ीस्त की कौन सी सूरत दिल-ए-अग़यार करूँ बोझ हैं ज़हन पे गुज़रे हुए लम्हे अब तक बंद किस तरह से माज़ी का मैं अब ग़ार करूँ इन तमन्नाओं के “ मुमताज़ ” ये रेतीले महल गिर ही जाने हैं तो तामीर भी बेकार करूँ