अगर उससे मुलाक़ातों का यूँ ही सिलसिला होता
अगर उससे मुलाक़ातों का यूँ ही सिलसिला होता तो रफ़्ता रफ़्ता मेरे कर्ब से वो आशना होता हमारी दुश्मनी का तज़किरा गर जा ब जा होता सर-ए-बाज़ार अपना इश्क़ रुसवा हो गया होता हमारी बेनियाज़ी ने बचा ली लाज उल्फ़त की तेरी बेमेहरियों का राज़ वरना खुल गया होता न एहसास-ए-अलम होता न ग़म होता बिछड़ने का अगर अपनी वफ़ा पर हर्फ़ भी कुछ आ गया होता बिछड़ते वक़्त वो हसरत से मुड़ कर देखना उसका नज़र में काश वो मंज़र ही ज़िंदा रह गया होता जुनून-ए-शौक़ ने अक्सर कुरेदा है इन्हें वरना हर इक ज़ख़्म-ए-तमन्ना अब तलक तो भर गया होता सभी मजबूरियाँ “ मुमताज़ ” दिल में रह गईं आख़िर कभी तो कुछ सुना होता , कभी तो कुछ कहा होता