तो इस तलाश का भी वो ही अंजाम हुआ जो होना था
तो
इस तलाश का भी वो ही अंजाम हुआ जो होना था
जो
क़ैद थी रेत हथेली में, उसको तो फिसल कर खोना था
देखे
जो ख़्वाब अधूरे थे, जो शाम मिली वो बोझल थी
सरमाया
था जो इन आँखों का, वो एक ही ख़्वाब सलोना था
राहें
तो बहुत आसाँ थीं मगर जिस जगह क़याम किया हमने
आतिश
का नगर था, दर्द का घर, काँटों पे हमें अब सोना था
क्या
साथ हमारे बंदिश थी, कैसी थी तुम्हारी मजबूरी
छोड़ो
अब इस अफ़साने को वो हो के रहा जो होना था
रातों
की वुसअत और उसपर आसान न था ये काम भी कुछ
बिखरे
थे फ़लक पर जो तारे, पलकों में उन्हें पिरोना था
एहसास
की शिद्दत से अब तक “मुमताज़” मिली न निजात हमें
अब
वो भी भरा है अश्कों से जो दिल का तही इक कोना था
क़याम
–
ठहरना, आतिश – आग, वुसअत – विशालता, फ़लक – आसमान, निजात – छुटकारा, तही – खाली
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