हम ने सज़ा ये पाई है अपने शआर की
हम ने सज़ा ये पाई है अपने शआर की गुम हो गई धुएँ में तजल्ली निहार की तेरा ख़याल भी न जिसे पार कर सका दीवार थी बुलंद ग़म-ए-रोज़गार की ये क़ैद भी ख़लल है मेरे ही दिमाग़ का मैं ख़ुद ही हूँ गिरफ़्त में अपने हिसार की सोचों में उसकी उलझा रहे ज़हन हमेशा है एक मोअम्मा ये जलन दिल फ़िगार की आहट ये किसकी आती है उजड़े मकान से ये किसने मेरी डूबती धड़कन शुमार की दुनिया में ये ख़ुलूस की हालत है दोस्तो हो जुस्तजू में जैसे कि ताइर शिकार की “ मुमताज़ ” दिल जो धड़का तो एहसास हुआ है है आँच अभी राख में बुझते शरार की शआर – चलन , तजल्ली – रौशनी , निहार – सुबह , ग़म-ए-रोज़गार – रोज़मर्रा के दुख , ख़लल – सनक , गिरफ़्त – पकड़ , हिसार – घेरा , मोअम्मा – पहेली , फ़िगार – घायल , शुमार की – गिनी , ख़ुलूस – शुद्धता , ताइर – बाज़ , शरार – अंगारा