दर्द को दर्द का एहसास दिला देते हैं
दर्द
को दर्द का एहसास दिला देते हैं
अपनी
आदत है कि हम ख़ुद को सज़ा देते हैं
कैसी
लगती है ये दुनिया को दिखा देते हैं
ज़िन्दगी
आ, तेरी तस्वीर बना देते हैं
बुझ
भी जाएँगे तो क्या, कुछ तो उजाला होगा
कम
हो गर तेल तो लौ और बढ़ा देते हैं
फोड़
लेते हैं हर इक आबला दिल का ख़ुद ही
हर
नए ज़ख़्म को फिर आब-ए-बक़ा देते हैं
ढूँढ
लेगी तो हमें और अज़ीयत देगी
ख़ुद
को हम ज़ीस्त की आँखों से छुपा देते हैं
ज़ख़्म
खिलते हैं, उभरते हैं, सँवरते हैं कि ये
शब
की तन्हाई में कुछ और मज़ा देते हैं
उनके
आने की जो आहट हमें मिल जाती है
हम
कि ज़ख़्मों को सर-ए-राह बिछा देते हैं
वो
करें उनको जो करना है, हमें रंज नहीं
हम
तो “मुमताज़” उन्हें खुल के दुआ देते हैं
आबला
–
छाला, आब-ए-बक़ा – अमृत, अज़ीयत – यातना, ज़ीस्त – जीवन
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