जीना लाज़िम भी है, जीने का बहाना भी नहीं
जीना
लाज़िम भी है, जीने का बहाना भी नहीं
पुर्सिश-ए-हाल
को अब तो कोई आता भी नहीं
वक़्त
की धूप कड़ी है, जले जाते हैं क़दम
सर
पे छत भी, दीवार का साया भी नहीं
हर
कोई गुज़रा किया मुझसे बचा कर दामन
और
मैं ने किसी हमराह को रोका भी नहीं
शिद्दत-ए-तश्नगी, और दूर तलक सेहरा
में
एक
दरिया तो बड़ी चीज़ है, क़तरा भी नहीं
ख़्वाब
देखा था कि हाथों में मेरे है सूरज
और
आँगन में मेरे धूप का टुकड़ा भी नहीं
ज़िन्दगी
एक ज़ख़ीरा-ए-हवादिस है मगर
हादसा
बनना तो मैं ने कभी चाहा भी नहीं
मैं
वो मुफ़लिस कि मेरा दिल भी तही, जाँ भी तही
और
हाथों में मेरे भीक का कासा भी नहीं
मैं
ने दुनिया से अलग अपना सफ़र काटा है
मेरी
नज़रों से बचा कोई तमाशा भी नहीं
आग
का दरिया है उल्फ़त ये सुना है “मुमताज़”
मेरे
हाथों में तो शोला भी, शरारा भी नहीं
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