बचपन की एक ग़ज़ल - दूर रह कर भी दिल में रहते हैं
दूर रह कर भी दिल में रहते हैं आप आँखों के तिल में रहते हैं ग़म-ए-दौराँ से छुप छुपा कर हम तेरी पलकों के ज़िल में रहते हैं हम सियहबख़्तों के तारीक नसीब उनकी आँखों के तिल में रहते हैं कितने शोले , शरारे , अंगारे दिल की बर्फ़ानी सिल में रहते हैं भूल जाएँ हम उनको लेकिन वो जिस्म के आब-ओ-गिल में रहते हैं अब भी “ मुमताज़ ” हज़ारों अरमाँ इस दिल-ए-मुज़महिल में रहते हैं ग़म-ए-दौराँ – दुनिया का ग़म , ज़िल – साया , सियहबख़्त – काली क़िस्मत , तारीक – अँधेरे , शरारे – चिंगारियाँ , आब-ओ-गिल – पानी और मिट्टी , मुज़महिल – उदास