जाते जाते उसने हम पर ये करम भी कर दिया
जाते
जाते उसने हम पर ये करम भी कर दिया
दिल
को कुछ ख़ूँरंग तोहफ़े, आँख को गौहर दिया
नज़्र-ए-आतिश
कर दिया घर रौशनी के वास्ते
तेरी
इक ज़िद ने मेरे घर में अँधेरा कर दिया
अब
गिला क्यूँ है अगर किरचों में टूटा है वजूद
हम
ने ख़ुद ही दोस्तों के हाथ में पत्थर दिया
ठोकरों
पर मैं ने रक्खा जाह-ओ-हश्मत को सदा
मेरी
ज़िद ने मुझको ये काँटों भरा बिस्तर दिया
ज़ख़्म-ए-दिल, ज़ख़्म-ए-जिगर, ज़ख़्म-ए-तमन्ना, ज़ख़्म-ए-रूह
उसने
कितनी बख़्शिशों से मेरा दामन भर दिया
सर
कुचल कर रख दिया मेरी अना का बारहा
उसने
मेरी सादगी का ये सिला अक्सर दिया
रंग
जब लाया जुनूँ तो पैरहन अपना तमाम
ख़ुद
ही हमने अपने हाथों खून से तर कर दिया
चाहता
है दिल इजाज़त फिर तड़पने के लिए
हाथ
फिर “मुमताज़” उसने ज़ख़्म-ए-दिल पर धर दिया
गौहर
–
मोती, नज़्र-ए-आतिश – आग के हवाले, गिला – शिकायत, अना – अहम, बारहा – बार बार, सिला – बदला, जुनूँ – पागलपन, पैरहन – लिबास
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