कभी साया, कभी सहरा, कभी ख़ुशियाँ, कभी मातम
कभी
साया, कभी सहरा, कभी ख़ुशियाँ, कभी
मातम
हयात-ए-रंग-ए-सद
दिखलाएगी अब कौन सा मौसम
गुज़र
जाएँगे दुनिया से, मगर कुछ इस अदा से हम
कि
रह जाए ज़माने में हमारा बाँकपन दायम
चले
हो नापने सहरा की वुसअत जो बरहना पा
ज़रा
छालों से पूछो तो तपिश का दर्द का आलम
अभी
लहरों से लड़ना है, समंदर पार करना है
शिकस्ता
नाव, ये तूफ़ाँ के तेवर, और हवा बरहम
हमें
अपने मुक़द्दर से शिकायत तो नहीं लेकिन
करम
जब याद तेरे आए आँखों से गिरी शबनम
हयात-ए-बेकराँ
को रब्त था सीमाब से शायद
इसे
हर लम्हा थी इक बेक़रारी रोज़-ओ-शब पैहम
अगर
“मुमताज़” दावा है सफ़र में साथ चलने का
तो
पहले देख लो राहों के ख़म पेचीदा-ओ-पैहम
हयात-ए-रंग-ए-सद
–
सौ रंगों की ज़िन्दगी, दायम – हमेशा, वुसअत – फैलाव, बरहना पा – नंगे पाँव, शिकस्ता – टूटी
फूटी, बरहम – नाराज़, हयात-ए-बेकराँ – बहुत लंबी ज़िन्दगी, रब्त – संबंध, सीमाब – पारा, रोज़-ओ-शब – दिन और रात, पैहम – लगातार, ख़म – मोड, पेचीदा-ओ-पैहम –
घुमावदार और लगातार
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