एक पुरानी ग़ज़ल - मैं भी सज़ा दूँ तुझ को ऐसी
मैं
भी सज़ा दूँ तुझ को ऐसी, काँप उठे तेरी हस्ती
खो
जाऊँ यूँ, तू ढूँढे और मिले न मेरा साया भी
आज
घटा फिर टूट के बरसी, कच्चे घरों में लोग डरे
खंडर
खंडर शोर उठा, फिर आज कोई दीवार गिरी
कितने
मोती टूट के बिखरे, दिल का ख़ज़ाना लुटता रहा
ख़ाली
आँखें, ख़ाली दामन, ख़ाली हाथ रहे बाक़ी
भीड़
जमा थी, हंगामा बरपा था साहिल पर यारो
शायद
कोई भँवर खा गई फिर इक आवारा कश्ती
ये
तो क़ुसूर हमारा था, हम को थी तवक़्क़ोअ दुनिया से
ये
क्या अपना दर्द समझती, गुम अपनी रफ़्तार में थी
रात
बहुत तारीक है, दिल रौशन रक्खो “मुमताज़” अभी
बार
तुम्हारे दोश पे है माज़ी का, मुस्तक़बिल का भी
तवक़्क़ोअ
–
उम्मीद, तारीक – अँधेरी, दोश – कंधा, माज़ी – अतीत, मुस्तक़बिल – भविष्य
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