ग़ज़ल - रुख़ हवाओं का किधर है और मेरी मंज़िल कहाँ
रुख़ हवाओं का किधर है और मेरी मंज़िल कहाँ इस तलातुम में न जाने खो गया साहिल कहाँ रात का वीरान मंज़र , रास्ते ख़ामोश थे दूर देता था सदाएँ जाने इक साइल कहाँ अब तअस्सुब की लपट में क़ैद है सारा वतन मुंह छुपाए हैं खड़े ये आलिम-ओ-फ़ाज़िल कहाँ उलझनें कैसी , कहाँ वो उल्फ़तें , वो रंजिशें वो हमारी ज़िन्दगी में रह गया शामिल कहाँ जल रही है रूह तक , दिल थक गया है , ज़हन कुंद ये कहाँ बेहिस सी ज़िद , वो जज़्बा-ए-कामिल कहाँ आस्माँ की सिम्त हम देखा करें उम्मीद से हम गुनहगारों पे होता है सितम नाज़िल कहाँ और तो सब कुछ है , राहत है , सुकूँ भी है मगर वो मचलती आरज़ू , वो ज़ीस्त का हासिल कहाँ उस ने जो सोचा , जो चाहा , हम वो सब करते रहे हम भला उसके इरादों से रहे ग़ाफ़िल कहाँ इक निगाह-ए-मेहर-ओ-उल्फ़त , इक झलक , इक इल्तेफ़ात ये मगर मेरी गुज़ारिश ग़ौर के क़ाबिल कहाँ दर्द जब हद से बढ़ा तो हर तड़प जाती रही रूह तक ज़ख़्मी हो जब तो फिर शिकस्ता दिल कहाँ एक जुम्बिश दें नज़र को तो ख़ुदाई हो निसार रह गए इस दौर में “ मुमताज़ ” वो कामिल कहा...